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आचार्य दिग्विजय चम्पू]
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[ आचार्य पण्डितराज जगन्नाथ
है और इसकी प्रति खण्डित है जो सप्तम कल्लोल तक है और यह कल्लोल भी अपूर्ण है। इसके पद्य सरल तथा प्रसादगुणयुक्त हैं और गद्यभाग में अनुप्रास एवं यमक का प्रयोग किया गया है। काव्य का प्रारम्भ शिव की वन्दना से हुआ है।
जटाबन्धोदंचच्छशिकरहताज्ञानतमसे जगत्सृष्टिस्थेमश्लथनकलनस्फारयशसे । वटमारुण्यमूलप्रवणमुनिविस्मेरमनसे नमस्तस्मै कस्मैचन भुवनमान्याय महसे । ११ इस चम्पू का विवरण डिस्क्रिटिव कैटलॉग मद्रास १२३८० में प्राप्त होता है।
आधार ग्रन्थ-चम्पूकाव्य का आलोचनात्मक एवं ऐतिहासिक अध्ययन-डॉ० छविनाथ त्रिपाठी।
आचार्य पण्डितराज जगन्नाथ-इनके जीवन सम्बन्धी विवरण के लिए दे० पण्डितराज जगन्नाथ । पण्डितराज ने काव्यशास्त्रविषयक दो ग्रन्थों की रचना की है--'रसगंगाधार' एवं 'चित्रमीमांसाखण्डन'। इनमें 'चित्रमीमांसाखण्डन' स्वतन्त्र पुस्तक न होकर अप्पयदीक्षित कृत 'चित्र मीमांसा' की आलोचना है। 'रसगंगाधर' संस्कृत काव्यशास्त्र का अन्तिम प्रौढ़ ग्रन्थ एवं तद्विषयक मौलिक प्रस्थान ग्रन्थ है। इसे विद्वानों ने पाण्डित्य का 'निकषावा' कहा है । 'रसगंगाधर' अपने विषय का विशालकाय ग्रन्थ है जो दो आननों में विभक्त है । प्रथम आनन के वर्णित विषय हैं-काव्यलक्षण, काव्यकारण, काव्यभेद तथा रसध्वनि का स्वरूप एवं भेद । द्वितीय आनन में संलक्ष्यक्रमध्वनि के भेदों का निरूपण, शब्द-शक्ति-विवेचन तथा ७० अलंकारों का मीमांसन है । इसमें वणित अलंकार हैं-उपमा, उपमेयोपमा, अनन्वय, असम, उदाहरण, स्मरण, रूपक, परिणाम, सन्देह, भ्रान्तिमान्, उल्लेख, अपहृति, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति, तुल्ययोगिता, दीपक, प्रतिवस्तूपमा, दृष्टान्त, निदर्शना, व्यतिरेक, सहोक्ति, विनोक्ति, समासोक्ति, परिकर, श्लेष, अप्रस्तुतप्रशंसा, पर्यायोक्त, व्याजस्तुति, आक्षेप, विरोध, विभावना, विशेषोक्ति, असंगति, विषम, सम, विचित्र, अधिक, अन्योन्य, विशेष, व्याघात, शृङ्खला, कारणमाला, एकावली, सार, काव्यलिंग, अर्थान्तरन्यास, अनुमान, यथासंख्य, पर्याय, परिवृत्ति, परिसंख्या, अर्थापत्ति, विकल्प, समुच्चय, समाधि, प्रत्यनीक, प्रतीप, प्रौढोक्ति, ललित, प्रहर्षण, विषादन, उल्लास, अवज्ञा, अनुज्ञा, तिरस्कार, लेश, तद्गुण, अतद्गुण, समाधि एवं उत्तर । 'रसगंगाधर' अधूरे रूप में ही प्राप्त होता है और उत्तर अलंकार के विवेचन में समाप्त हो गया है। विद्वानों ने इसका कारण लेखक की असामयिक मृत्यु माना है। इस पर नागेशभट्ट की 'गुरुममंप्रकाशिका' नामक संक्षिप्त टीका प्राप्त होती है जो 'काव्यमाला' से प्रकाशित है। आधुनिक युग के कई विद्वानों ने भी इस पर टीका लिखी है इनमें आचार्य बदरीनाथ झा की चन्द्रिका टीका ( चौखम्बा प्रकाशन ) तथा मधुसूदन शास्त्री रचित टीका प्रसिद्ध हैं। इन्होंने इस ग्रन्थ में समस्त उदाहरण अपने दिए हैं जिसमें इनकी उत्कृष्टकोटि की कारयित्री प्रतिभा के दर्शन होते हैं । पण्डितराज ने काव्यलक्षण के विवेचन में पूर्ववर्ती आचार्यों के लक्षण का परीक्षण कर 'रमणीयार्थ प्रतिपादक शब्द' को ही काव्य माना है। इस दृष्टि से वे शब्द को ही काव्य मान कर उसको प्रधान तत्त्व स्वीकार करते हैं। काव्यहेतु का विवेचन करते हुए इन्होंने एकमात्र प्रतिभा को ही उसका कारण ठहराया है-तस्य च कारणं