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[कामशान
की। इन व्याख्याकारों में भट्टलोल्लट, श्रीशंकुक, भट्टनायक एवं अभिनवगुप्त के नाम उल्लेखनीय हैं। भट्टलोल्लट का सिद्धान्त उत्पत्तिवाद, श्रीशंकुक का मनुमितिबाद, भट्टनायक का मुक्तिवाद एवं अभिनवगुप्त का सिद्धान्त अभिव्यक्तिवादके नाम से प्रसिद्ध है। आगे चलकर रुद्रट, भट्ट बादि आचार्यों ने रस की महत्ता प्रतिष्ठित करते हुए इसे काव्य का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तत्व घोषित किया और ध्वनिवादी बाचायं बानन्दवर्धन ने रस को व्यंग्य मानकर इसे ध्वनि का ही अंग सिख किया। इनके अनुसार ध्वनि के तीन विभाग है-स्तुपनि, अलंकारज्वनि एवं रसम्बनि । इनमें रखध्वनि ही ध्वनि का उत्कृष्टतम रूप है। भोज ने 'श्रृंगारप्रकार' में रस को अधिक महत्व देकर श्रृंगार के अन्तर्गत ही सभी रसों को अन्तसुंत किया बोर 'सरस्वतीकण्ठाभरण' में वाङ्मय को तीन भागों-स्वभावोक्ति, वक्रोक्ति एवं रसोक्ति में विभक्त कर रसोक्ति को ही काव्य का मुख्य तत्व स्वीकार किया। 'अमिपुराण' एवं राजशेखर ने रस को काव्य की बारमा के रूप में स्वीकार किया है। 'अमिपुराण के अनुसार उक्तिवैचित्र्य का प्राधान्य होते हुए भी रस ही काव्य का जीवित है-'वाक्वैदग्ध्य प्रधानेपि रसएवात्रजीवितम्' (१३६१३)। भागे चलकर भानुदत एवं विश्वनाथ ने रस को अधिक महत्त्व देकर इसे स्वतन्त्र काव्य. सिद्धान्त के रूप में अधिष्ठित किया और ध्वनि से पृथक् कर इसकी स्वतम्ब सत्ता की उदघोषणा की । विश्वनाथ के अनुसार रसात्मक वाक्य ही काव्य है-'वाक्यं रसात्मकं काव्यम्' । पण्डितराज ने 'रसगंगाधर' में वेदान्त की दृष्टि से रस-विवेचन उपस्थित कर हो दार्शनिक पीठिका प्रदान की। 'रससिद्धान्त' भारतीय काव्यशाला का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सम्प्रदाय है जो काव्यानुशीलन का शाश्वत एवं सार्वभौमरूप उपस्थित करता है। न केवल साहित्यिक दृष्टि से अपितु सौन्दर्यशास्त्रीय, मनोवैज्ञानिक, नैतिक तथा समाजशास्त्रीय दृष्टि से भी इसकी महत्ता स्वीकार की गयी है।
अलंकार सम्प्रदाय-काव्य के शोभाकारक धर्म को अलवार कहा जाता है। इस सम्प्रदाय के पोषक आचार्य बलकार को ही काव्य का 'जीवातु' समझ कर अन्य तत्वों या सिद्धान्तों को उसी में गतार्थ कर देते हैं। अलवार-सम्प्रदाय के प्रवर्तक बाचार्य भामह हैं और इसके पोषक है-दण्डी, उदट, ट, प्रतिहारेराज एवं जयदेव । भामह के अनुसार अलङ्कारों के बिना कविता उसी प्रकार सुशोभित नहीं हो सकती जिस प्रकार बाभूषणों के बिना कामिनी विभूषित नहीं हो पाती। इन्होंने रस को भी बलकारों में समाविष्ट कर रस-सिद्धान्त के प्रति अनास्था प्रकट की है। भामह ने रस को गौण स्थान देते हुए रसवत् अलङ्कारों में ही उसका मन्तर्भाव किया-रसवत् दर्शितस्पष्ट शृङ्गारादिरसं यथा ॥ काव्यालखार ३२६ भरत ने केवल चार अलङ्कारों का विवेचन किया था किन्तु अप्पयदीक्षित तक इनकी संस्था १२५ हो गई। संसांत काव्यखान में न केवल अलङ्कारवादियों ने अपितु ध्वनि एवं रसवादी आचार्यों ने भी अपने अन्यों में अलकारों को महत्वपूर्ण स्थान देकर इसका वैज्ञानिक विवेचन प्रस्तुत किया है। सच तो यह है कि बलरवादी याचार्यों की अपेक्षा ध्वनि एवं रसवादी बाचार्यो मे ही बलकारों का प्रौढ़ विवेचन प्रस्तुत किया और काम्य में इसकी उपयोगिता,