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प्रबोधचन्द्रोदय ]
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[ प्रभाकर मिश्र
होती हैं। इसमें कवि ने मौलिकता का समावेश कर सम्पूर्ण प्रचलित कथा से भिन्न घटनाओं का वर्णन कर, नाटकीय दृष्टि से, अधिक कौतूहल भर दिया है। प्रथम अंक में परिहास में सीता का वल्कल धारण करना और तृतीय में प्रतिमा का प्रसंग भास की मौलिक उद्भावनायें हैं। पंचमः अंक में सीता हरण प्रकरण में भी नवीनता प्रदर्शित की गयी है। राम उटज में विद्यमान रहते हैं तभी रावण आकर उन्हें राजा दशरथ के श्राद्ध के लिए कांचनपाश्वंमृग लाने को कहता है तथा कंचन मृग को दिखाकर उन्हें दूर हटा देता है । सुमन्त्र का वन में जाना तथा राम की कुटिया को सूना देखकर सीताहरण की बात जाकर भरत को सुनाना आदि नवीन तथ्य उपस्थित किये गए हैं । भरत के कोसने पर कैकेयी का यह कहना कि श्रवण के पिता के शाप को सत्य
कल्पना है । इसमें कवि
करने के लिए ही मैंने राम को वन भेजा था, यह कवि की नई ने कैकेयी के चरित्र को परिमार्जित करने का सफल प्रयास नया मोड़ दिया है। कैकेयी ने भगत को बतलाया कि उसने बनवास का वरदान मांगा था पर मानसिक विकलता के निकल गया। उसके अनुसार यह वरदान सभी ऋषियों द्वारा पात्रों का चारित्रिक उत्कर्ष दिखलाया गया है तथा इतिवृत्त को कौतूहल को अक्षुण्ण रखा गया है ।
करते हुए राम कथा में १४ दिनों के कारण मुख से अनुमोदित था । इसमें
लिए ही १४ वर्ष
नया रूप देकर नाटकीय
आधार ग्रन्थ -- महाकवि भास - पं० बलदेव उपाध्याय ।
प्रबोधचन्द्रोदय -यह संस्कृत का सुप्रसिद्ध प्रतीक नाटक है जिसके रचयिता श्रीकृष्ण मिश्र हैं । लेखक जैजाकमुक्ति के राजा कीर्तिवर्मा के राजकाल में विद्यमान था । कीर्तिवर्मा का एक शिलालेख १०९८ ई० का प्राप्त हुआ है, जिससे ज्ञात होता है कि कृष्ण मिश्र का समय : १०० ई० के निकट था । 'प्रबोधचन्द्रोदय' शान्तरस प्रधान नाटक है । इसमें रचयिता ने अद्वैतवाद का प्रतिपादन किया है। श्रद्धा, भक्ति, विद्या, ज्ञान, मोह, विवेक, दम्भ बुद्धि इत्यादि अमृतं भावमय पदार्थ इसमें नरनारी के रूप में प्रस्तुत किये गए हैं। इसमें दिखाया गया है कि पुरुष राजमोह के जाल में फँस कर अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाता है तथा उसका यथार्थ ज्ञान जाता रहता है। विवेक के द्वारा मोह के पराजित होने पर पुरुष को शाश्वत ज्ञान प्राप्त होता है तथा विवेकपूर्वक उपनिषद् के अध्ययन एवं विष्णु-भक्ति का आश्रय ग्रहण करने से ज्ञान स्वरूप चन्द्रोदय होता है। इसमें कवि ने वेदान्त एवं वैष्णवभक्ति का सम्मिश्रण अत्यन्त सुन्दर युक्ति से किया है। इसमें कुल छह अंक हैं तथा पात्र अत्यन्त प्राणवन्त हैं । द्वितीय अंक में दम्भ तथा अहंकार के वार्तालाप हास्यरस की छटा छिटकायी गयी है ।
इतिहास' वाचस्पति गौरोला ।
आधार ग्रन्थ- 'संस्कृत साहित्य का प्रभाकर मिश्र-मीमांसा दर्शन के अन्तर्गत गुरुमत के प्रतिष्ठापक आ० प्रभाकर मिश्र है [] दे०मीमांसा दर्शन]। ये कुमारिलभट्ट ( मीमांसा दर्शन के प्रसिद्ध वाचायं )