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मद्रकन्या परिणय चम्पू]
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[ मम्मट
मद्रकन्या परिणय चंपू--इस चम्पू काव्य के प्रणेता गंगाधर कवि हैं । इनका समय सत्रहवीं शताब्दी का अन्तिम चरण है। ये उदय परिवार के दत्तात्रेय के पुत्र थे। इनकी अन्य दो रचनाएँ भी प्राप्त होती हैं-'शिवचरित्र चम्पू' तथा 'महानाटकसुधानिधि । यह चम्पू चार उबासों में विभक्त है। इसमें लक्ष्मणा एवं श्रीकृष्ण के परिणय का वर्णन 'श्रीमद्भागवत' के आधार पर किया गया है। यह ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित है और इसका विवरण डी० सी० मद्रास १२३३४ में प्राप्त होता है । शुक के मुख से कृष्ण के स्नेह की बात सुनकर लक्ष्मणा की उनके प्रति आसक्ति का वर्णन अत्यन्त सरस है-शुकनिगदितवाचं राजकन्या निशम्य स्फुटित सुहृदया सा मोदखेदादिभावः । करनिहितकपोला प्रांशुनिश्वासधारोद्गमनचलदुरांजा नैव किंचिज्जगाद ।।
आधारग्रन्थ--चम्पूकाव्य का बालोचनात्मक एवं ऐतिहासिक अध्ययन--डॉ. छविनाथ त्रिपाठी।
मम्मट-काव्यशास्त्र के अप्रतिम आचार्य । इनके नाम से ज्ञात होता है कि ये काश्मीर-निवासी रहे होंगे। इन्होंने 'काव्यप्रकाश' नामक युगप्रवर्तक काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ का प्रणयन किया है जिसकी महत्ता एवं गरिमा के कारण ये 'वाग्देवतावतार' कहे जाते हैं [दे० काव्यप्रकाश] । 'काव्यप्रकाश' की 'सुधासागर' नामक टीका के प्रणेता भीमसेन ने इन्हें काश्मीरदेशीय जैयट का पुत्र तथा पतन्जलिकृत 'महाभाष्य' के टीकाकार कयट एवं चतुर्वेदभाष्कर उम्बट का ज्येष्ठ भ्राता माना है । शब्दब्रह्म सनातनं न विदितं शास्त्रैः कचित् केनचित् तदेवी हि सरस्वती स्वयमभूत् काश्मीरदेशे पुमान् । श्रीमज्जैयटगेहिनीसुजरठराज्जन्माप्य युग्मानुजः श्रीमन्मम्मटसंशयाश्रिततनुं सारस्वती सूचयन् ।। पर इस विवरण को विद्वान् प्रामाणिक नहीं मानते। इसी प्रकार नैषधकार श्रीहर्ष को मम्मट का भागीनेय कहने की भी अनुश्रुति पूर्णतः संदिग्ध है क्योंकि श्रीहर्ष काश्मीरी नहीं थे। भीमसेन का उक्त विवरण मम्मट की मृत्यु के ६०० वर्ष बाद का है ( १७२३ ई० में), अतः विद्वान उसकी प्रामाणिकता पर सन्देह प्रकट करते हैं । मम्मट का समय ग्यारहवीं शताब्दी का उत्तर-धरण प्रतीत होता है। 'अलंकार सर्वस्व' के प्रणेता रुय्यक ने 'काव्यप्रकाश' की टीका लिखी है और इसका उज्लेख भी किया है। रुय्यक का समय ( ११२८-११४९ ई.) के आसपास है। अतः मम्मट का समय उनके पूर्व ही सिद्ध होता है। यह अवश्य है कि कय्यक मम्मट के ४० या ५० वर्ष बाद ही हुए होंगे। _ 'काव्यप्रकाश के प्रणेता के प्रश्न को लेकर विद्वानों में पर्याप्त मत-भेद है कि मम्मट ने सम्पूर्ण ग्रन्थ की रचना अकेले नहीं की है। इसमें काश्मीरफ विद्वान अल्लट का भी योग है, इस बात पर मम्मट के सभी टीकाकारों की सहमति है। कई टीकाकारों के अनुसार मम्मट ने काव्यप्रकाश के दशम परिच्छेद के 'परिकरालंकार' तक के भाग का ही प्रणयन किया था और शेष अंश की पूर्ति अल्लट ने की थी-कृतः श्रीमम्मटा. चार्यवयः परिकरावधिः । ग्रन्थः सम्पूरितः शेषो विधायाटसूरिणा ॥
काव्यप्रकाश की टीका निदर्शना से उद्धृत (रांजानक आनन्दकृत १६८५ ई.] ।