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मारुति विजय पम्पू]
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[मार्गसहाय बम्पू
है। मालती-माधव तथा मदयन्तिका एवं मकरन्द के प्रेम भी उच्चतर भावभूमि पर अधिष्ठित हैं। मालती तथा मदयन्तिका के प्रेम शनैः शनैः प्ररूढ होते हैं। लवङ्गिका तथा बुद्धरक्षिता, उन दोनों की प्रेम प्रोदि में योगदान करते हैं।" महाकषि भवभूति पृ० ७८ । काव्य-कला की दृष्टि से 'मालती माधव' की उच्चता असंदिग्ध है। इसमें कवि ने भावानुरूप शब्द-संघटन पर अधिक बल दिया है तथा प्रत्येक परिस्थिति को स्वाभाविक रूप से अभिव्यक्त किया है। भावों की उच्चता, रसों की स्पष्ट प्रतीति, शब्दसौष्ठव, उदार गुणशालिता एवं अर्थगौरव 'मालती-माधव' के निजी वैशिष्ट्य हैं। प्रेयान्मनोरथसहस्रवृतः स एष सुप्तप्रमत्तजनमेतदमात्यवेश्म । प्रोढंतमः कृतज्ञतयैव भद्रमुत्क्षिप्तमूकमर्मणि पुरमेहियामः ॥७३ । 'सहस्र अभिलाषाओं से प्रार्थी ये ही वे प्रिय हैं, मन्त्रि-भवन में कुछ व्यक्ति तो सोये हुए हैं और कुछ प्रमत्त पड़े हुए हैं, अन्धकार घना है, अतः अपना मंगल करो।' मणिनपुरों को ऊपर, उठाकर तथा निःशब्द कर आओ हम चलें।' 'मालती-माधव' का हिन्दी अनुवाद चौखम्भा से प्रकाशित है।
मारुति विजय चम्पू-इस चम्पू काव्य के प्रणेता का नाम रघुनाथ कवि या कुप्पाभट्ट रघुनाथ है । इसके लेखक के सम्बन्ध में अन्य बातें ज्ञात नहीं होती। यह काव्य सत्रहवीं शताब्दी के आस-पास लिखा गया है। इसमें कवि ने सात स्तबकों में वाल्मीकि रामायण के सुन्दर काण्ड की कथा का वर्णन किया है । कवि का मुख्य उद्देश्य हनुमान जी के कार्यों की महत्ता प्रदर्शित करना है। इसके श्लोकों की संख्या ४३६ है । अन्य के प्रारम्भ में गणेश तथा हनुमान की वन्दना की गयी है। यह ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित है और इसका विवरण तंजोर कैटलाग, ४१०६ में प्राप्त होता है। कवि ने काव्य के स्तबकों एवं श्लोकों की संख्या का विवरण इस प्रकार दिया हैचूर्णान्तरस्सबकसप्तविभज्यमानं षट्त्रिंशदुतरचतुश्शतपद्यपूर्णम् । चं' परं सकलदेशनिवासिधीराः पश्यन्तु यान्तु च मुदं विधुताभ्यसूयाः ॥ १।४। हनुमान की वन्दनासमीरवेनं कुशकोटिबुद्धिं सोतासुतं राक्षसवंशकालम् । नयाकरं नन्दितरामभद्रं नित्यं हनूमन्तमहं नमामि ॥ १।२। ___ आधारपन्थ-चम्पू काव्य का आलोचनात्मक एवं ऐतिहासिक अध्ययन-डॉ. छविनाथ त्रिपाठी।
मार्गसहाय बम्पू-इस चम्पू काव्य के प्रणेता नवनीत हैं। इनके पिता का नाम वेदपुरीश्वरावरि था। इनका समय १७ वीं शताब्दी के बासपास है। इस चम्मू में छह आश्वासों में मार्काट जिलान्तर्गत स्थित विरंचिपुरम् ग्राम के शिव मन्दिर के देवता मार्गसहायदेव जी की पूजा वर्णित है। उपसंहार में कवि ने स्पष्ट किया है कि इस चम्पू में मार्गसहायदेव के प्रचलित आख्यान को आधार बनाया गया है। एवं प्रभावपरिपाटिकया प्रपंचे प्रांचन्विरंचिपुरमार्गसहायदेवः । अत्यमुतानि परितान्यवनी वितन्वन् नित्यं तरंगयति मंगलमंगभाजाम् । यह ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित है और इसका विवरण संजोर केटलाग, ४०१६ में प्राप्त होता है।
आधारसंच-पम्पू काव्य का आलोचनात्मक एवं ऐतिहासिक अध्ययन-डॉ. छविनाथ त्रिपाठी ।
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