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काव्यालंकार]
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[काव्यालंकार
के ( १९१० ई० ) संस्करण में 'काव्यादर्श' के चार परिच्छेद मिलते हैं जिसमें तृतीय परिच्छेद के ही दो विभाग कर दिये गए हैं। इसके चतुर्थ परिच्छेद में दोष-विवेचन है। 'काव्यादर्श' के तीन हिन्दी अनुवाद हुए हैं-बजरत्नदासकृत हिन्दी अनुवाद, आचार्य रामचन्द्र मिश्र कृत हिन्दी एवं संस्कृत टीका ( चौखम्बा संस्करण २०१५ वि० ) एवं श्रीरणवीर सिंह का हिन्दी अनुवाद (अनुसंधान परिषद्, दिल्ली विश्वविद्यालय)। काव्यादर्श के ऊपर रचित अन्य अनेक टीकाओं के भी विवरण प्राप्त होते हैं-(क) मार्जन टीका-इसके रचयिता म० म० हरिनाथ थे। इनके पिता का नाम विश्वधर तथा अग्रज का नाम केशव था। इसका विवरण भण्डारकर ओरियण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट स्थित राजकीय ग्रन्थ, संग्रहालय, ग्रन्थसूची भाग १२, संख्या २४ में है । इसका प्रतिलिपिकाल संवत् १७४६ है। (ख) काव्यतत्त्वविवेककोमुदी-इसके रचयिता कृष्णकंकर तर्कवागीश थे। ये गोपालपुर ( बंगाल ) के निवासी थे। इसका विवरण इण्डिया ऑफिस सूचीपत्र पृ० २२१ में प्राप्त होता है। (ग) श्रुतानुपालिनी टीका-इसके लेखक वादिधङ्घल हैं। इसका विवरण डी० सी० हस्तलिखित ग्रन्थ संग्रह, संख्या ३, १९१९-२४ ई०, ग्रन्थसूची भाग १२, संख्या १२५ में है। (घ) वैमल्यविधायिनी टीका-जगन्नाथ के पुत्र मल्लिनाथ ने इस टीका की रचना की थी। (ङ) विजयानन्द कृत व्याख्या। (च) यामुन कृत व्याख्या । (छ) रत्न श्री संज्ञक टीका-इसके लेखक रत्न श्री ज्ञान नामक लंकानिवासी । विद्वान् थे। मिथिला रिसंच इन्स्टीट्यूट, दरभंगा से श्री अनन्तलाल ठाकुर द्वारा सम्पादित एवं प्रकाशित, १९५७ ई. में । ( ज ) बोथलिंक द्वारा जर्मन अनुवाद १८९० ई० में । - आधारग्रन्थ-क. काव्यादर्श-(संस्कृत-हिन्दी व्याख्या ) आ० रामचन्द्र मिश्रचौखम्बा संस्करण । ख. संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास-डॉ० पा० वा. काणे ( हिन्दी अनुवाद)।
काव्यालंकार-इस ग्रन्थ के रचयिता हैं आ० भामह [ दे० भामह ] । यह भारतीय काव्यशास्त्र की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कृति है। इसमें सर्वप्रथम काव्यशास्त्र का स्वतन्त्ररूप से विवेचन किया गया है। अथवा यों कहा जाय कि भामहकृत 'काव्यालंकार' में ही काव्यशास्त्र को स्वतन्त्र शास्त्र का रूप दिया गया है तो कोई अत्युक्ति नहीं। यह ग्रन्थ छह परिच्छेदों में विभक्त है तथा इसमें श्लोकों की संख्या चार सौ के लगभग है। इसमें पाँच विषयों का वर्णन है-काव्यशरीर, अलंकार, दोष, न्याय-निर्णय एवं शब्द-शुद्धि । प्रणम परिच्छेद में काव्य-प्रयोजन, कवित्व-प्रशंसा, प्रतिभा का स्वरूप, कवि के ज्ञातव्य विषय, काव्य का स्वरूप एवं भेद, काव्य-दोष एवं दोष-परिहार का वर्णन है । इसमें ५९ श्लोक हैं । द्वितीय परिच्छेद में गुण, शब्दालंकार एवं अर्थालंकार का विवेचन है। तृतीय परिच्छेद में भी अर्थालंकार निरूपित हैं और चतुर्थ परिच्छेद में दोषों का विवेचन है । पंचम परिच्छेद का संबंध न्याय-निर्णय से है और षष्ठ परिच्छेद में व्याकरणविषयक अशुद्धियों का वर्णन है। प्रत्येक परिच्छेद में कारिकाओं या श्लोकों की संख्या इस प्रकार है-५९ + ९६ + ५८ + ५१ + ६९+