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आयुर्वेद की परम्परा]
[आयुर्वेद की परम्परा
का निर्माण किया जो अपने विषय का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। १२ वीं शताब्दी में शार्ङ्गधर ने 'शाङ्गधरसंहिता' नामक ग्रन्थ की रचना की जो अपनी लोकप्रियता के कारण आज भी प्रचलित है। आयुर्वेद के अन्य लेखकों ने भी अनेक ग्रन्थों की रचना कर आयुर्वेदशास्त्र की परम्परा को प्रशस्त किया है । उनके नाम हैं-मिल्हण ( १३ वी शती)-'चिकित्सामृत', तिसट (१४ वीं शताब्दी ) 'चिकित्साकलिका', भावमिश्र ( १६ वीं शताब्दी) 'भावप्रकाश', लोलम्बराज (१७ वीं शताब्दी) 'वैद्यजीवन' पृथ्वीमल्ल ( १५ वीं शताब्दी) 'शिशुरक्षारत्न', देवेश्वर ( सत्रहवीं शताब्दी) 'स्त्रीविलास', अज्ञात लेखक ( १८ वीं शताब्दी ) 'योगरत्नाकर'।
आयुर्वेद में रसायनशास्त्र का पृथक् रूप से विकास देखा जाता है और इस विषय पर स्वतन्त्र रूप से अन्यों का निर्माण हुआ है। रसविद्या का प्राचीन ग्रन्थ है 'रसरत्नाकर' या 'रसेन्द्रमंगल' जिसके रचयिता नागार्जुन हैं। इसका निर्माणकाल सातवीं या आठवीं शताब्दी है। इस विषय के अन्य महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हैं वाग्भटकृत 'रसरत्नसमुच्चय' तथा नित्यानन्द रचित 'रसरत्नाकर' । रसशास्त्र के अन्य ग्रन्थों की सूची इस प्रकार है
'रसेन्द्रचूड़ामणि' कर्ता सोमदेव रसप्रकाश सुधाकर-श्री यशोधर रसराजलक्ष्मी-विष्णुदेव, रसेन्द्रसारसंग्रहगोपालभट्ट, रसकल्प-गोविन्द, स्वच्छन्दभैरव रससार-गोविन्दाचार्य, रसेन्द्रचिन्तामणिढुण्डीनाथ, रसरत्नाकर-नित्यानाथसिद्ध आदि ।
आयुर्वेद में न केवल मनुष्यों की अपितु गौ, अश्व, हाथी एवं वृक्षों की भी चिकित्सा का वर्णन मिलता है, और इन विषयों पर स्वतन्त्र रूप से प्रन्थों की रचना हुई है। अश्वायुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं-गणकृत 'अश्वलक्षण', 'हयलीलावती' तथा 'अश्वायुर्वेद', जयदत्त एवं दीपंकर रचित 'अश्ववैद्यक', वर्धमानकृत 'योगमंजरी', नकुलविरचित 'शालिहोत्र' भोजराज का 'शालिहोत्र' एवं 'अश्वशास्त्र' आदि । गजचिकित्सा के ऊपर पालकाप्य रचित 'गजचिकित्सा', 'गजायुर्वेद', 'गजदर्पण', 'गजपरीक्षा' तथा बृहस्पतिकृत 'गजलक्षण' आदि प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं। बृहस्पति ने 'गो-वैद्यशास्त्र' नामक ग्रन्थ की भी रचना की है। राघवभट्ट ने 'वृक्षायुर्वेद' नामक पुस्तक में वृक्ष-चिकित्सा का वर्णन किया है। ___ आयुर्वेद में कोश ग्रन्थों की सशक्त परम्परा दिखाई पड़ती है जिन्हें निघंटु कहा जाता है । इन ग्रन्थों की सूची इस प्रकार है-'धन्वन्तरीय निघंटु', 'पर्यायरत्नमाला' (७०० ई०), चक्रपाणिदत्त कृत 'शब्दचन्द्रिका' (१०४० ई०), सूरपाल का 'शब्दप्रदीप', हेमचन्द्र का 'निघंटुशेष', मल्लिनाथकृत 'अभिधानरत्नमाला' या 'सदृशनिघंटु', मदनपाल का 'मदनविनोद' ( १३७४ ई.), नरहरि का 'राजनिघंटु' ( १४०० ई०), शिवदत्त का 'शिवप्रकाश' ( १६७७ ) आदि ।