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निरुक्त ]
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[ निरुक्त
जीव ब्रह्म से पृथक् होते हुए अभिन्न भी है । मोक्ष की स्थिति में भी जीव ब्रह्म में अपने स्वरूप को खो नहीं देता और ब्रह्म से अभिन्न होकर भी अपना पृथक अस्तित्व बनाये रहता है । भक्ति के द्वारा ही भगवत्साक्षात्कार होता है तथा प्रपत्ति के द्वारा ही भगवान् भक्तों पर अनुग्रह करता है । भक्ति के द्वारा भगवत्साक्षात्कार होने पर जीव भगवरभावान होकर सभी प्रकार के क्लेशों से छुटकारा पा जाता है । भगवान् के चरण की सेवा के अतिरिक्त जीव के लिए अन्य कोई उपाय नहीं है । निम्बाकं मत में कृष्ण ही परमात्मा माने गए हैं जिनकी वन्दना ब्रह्मा, शिव आदि सभी देवगण करते हैं । तस्मात् कृष्ण एव परोदेवः, तं ध्यायेत् तं रसेत् तं भजेत् तं यजेत् ओं तत् सदिति ( दशश्लोकी टीका पृ० ३६ । ) हरिव्यास कृष्ण की प्राप्ति भक्ति द्वारा ही संभव है जो पांच भावों से युक्त होती है - शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य तथा उज्ज्वल । निम्बार्क ने भगवान् की प्रेमशक्तिरूपा राधा की भी उपासना पर बल दिया है । इस मत के आराध्यदेव श्रीकृष्ण माने गए हैं जिन्हें सर्वेश्वर कहा गया है और उनकी आह्लादिनी शक्ति श्रीराधा हैं। राधा का स्वरूप 'अनुरूप सौभगा' है या वे श्रीकृष्ण के अनुरूप हैं । कृष्ण और राधा दोनों ही सर्वेश्वर एवं सर्वेश्वरी हैं। दोनों में अविनाभाव-सम्बन्ध है और वे क्रीड़ा निमित्त एक ही ब्रह्म के दो रूप में उत्पन्न हुए हैं । इस सम्प्रदाय में अनुरागात्मिका पराभक्ति ( प्रेमलक्षण ) को ही साधनामार्ग में श्रेष्ठ माना गया है ।
आधारग्रन्थ - १. भागवत सम्प्रदाय - पं० बलदेव उपाध्याय २. भारतीयदर्शनपं० बलदेव उपाध्याय ३. वैष्णवधमं - पं० परशुराम चतुर्वेदी ४. भक्तिकाल - श्री रतिभानुसिंह 'नाहर' |
निरुक्त- इसके लेखक महर्षि यास्क हैं जिनका समय ( आधुनिक विद्वानों के अनुसार ) ७०० ई० पू० है । निरुक्त के टीकाकार दुर्गाचार्य ने अपनी वृत्ति में १४ निरुक्तों का संकेत किया है । ( दुर्गावृत्ति १।१३ ) । यास्क कृत 'निरुक्त' में भी बारह निरुक्तकारों के नाम हैं- अप्रायण, औपमन्यव, ओदुम्बरायण, ओर्णनाभ, कात्थक्य, क्रोष्टुकि, गाग्यं, गालव, तैटीकि, वार्ष्यायणि, शाकपूणि तथा स्थौलाष्ठीवि । इनमें से शाकपूणि का मत 'बृहद्देवता' में भी उद्धृत है ।
यास्क कृत 'निरुक्त' में बारह अध्याय हैं तथा अन्त के दो अध्याय परिशिष्ट रूप हैं । 'महाभारत' के शान्तिपर्व में यास्क का नाम निरुक्तकार के रूप में आया है। इस दृष्टि से इनका समय और भी अधिक प्राचीन सिद्ध हो जाता है ।
यास्को मामृषिरप्यग्रथ नैकयज्ञेषु गीतवान् ।
शिपिविष्टं इति ह्यस्माद्द् गुह्यनामधरो ह्ययम् ॥ ७२ ॥ स्तुत्वा मां शिपिविष्टेति यास्क ऋषिरुदारधीः । यत्प्रसादादधो निरुक्तमभिजग्मिवान् ॥ ७३ ॥
नष्टं
अध्याय ३४२
'निरुक्त' में वैदिक शब्दों की व्युत्पत्ति दी गई है तथा यह बतलाया गया है कि कौन सा शब्द किसी विशिष्ट अर्थ में रूढ क्यों हुआ। इसके प्रतिपाद्य विषय हैंवर्णागम, वर्णविपर्यय, वर्णविकार, वर्णनाश तथा धातु का उसके अर्थातिशय से योग ।