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प्रशस्तपाद ]
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[ प्रशस्तपाद
के प्रसिद्ध शिष्यों में हैं । कहा जाता है कि अपने शिष्य की प्रखर मेधा से प्रसन्न होकर कुमारिल ने इन्हें 'गुरु' को उपाधि दे दी थी। उस समय से इनका मत मीमांसा के इतिहास में 'गुरुमत' के नाम से विख्यात हो गया है। पर, कुमारिल और प्रभाकर के सम्बन्ध को लेकर आधुनिक विद्वानों ने नाना प्रकार के विचार व्यक्त किये हैं। डॉ० ए० बी० कीथ एवं डॉ० गंगानाथ को इनकी गुरुशिष्यतां स्वीकार्य नहीं है और वे कुमारिल को प्रभाकर का परवर्ती मानते हैं । इनके अनुसार प्रभाकर का समय ६०० से ६५० ई० के मध्य है । प्रभाकर ने अपने स्वतन्त्र मत की प्रतिष्ठापना करने लिए 'शाबरभाष्य' के ऊपर दो टीकाओं का निर्माण किया है जिन्हें 'बृहती' या निबन्धन एवं 'लघ्वी' या विवरण कहते हैं। इनमें द्वितीय ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित है । 'निबन्धन' की रचना १२ हजार श्लोकों में हुई है और 'विवरण' में ६ हजार श्लोक हैं । प्रभाकर के पट्टशिष्य शालिकनाथ मिश्र थे और ये गुरुमत के ही अनुयायी थे । इन्होंने अपने गुरु के दोनों ग्रन्थों पर 'दीपशिखा' तथा 'ऋऋजुविमला' नामक टीकाओं की रचना कर इस मत को गति दी थी। शालिकनाथ मिश्र ने 'प्रकरण पञ्चिका' नामक स्वतन्त्र ग्रन्थ की भी रचना की है । ये मिथिला के निवासी थे, पर कतिपय विद्वान् इन्हें बंगाल का रहने वाला कहते हैं ।
आधारग्रन्थ- १. भारतीय-दर्शनपं० मण्डन मिश्र ।.
-आ० बलदेव उपाध्याय । २. मीमांसा दर्शन
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प्रशस्तपाद-~- वैशेषिकदर्शन के प्रसिद्ध आचार्य प्रशस्तपाद ( प्रशस्तदेव ) हैं जिन्होंने 'पदार्थधर्म संग्रह' नामक मौलिक ग्रन्थ की रचना की है [ दे० वैशेषिकदर्शन ]। इनका समय ई० सन् की चतुथं शताब्दी का अन्तिमचरण माना जाता है । इस ग्रन्थ का चीनी भाषा में ६४८ ई० में अनुवाद ही चुका था । प्रसिद्ध जापानी विद्वान् डॉ० उई ने इसका आंग्लभाषा में अनुवाद किया है । यह ग्रंथ वैशेषिक सूत्रों का व्याख्या न होकर तद्विषयक स्वतंत्र एवं मौलिक ग्रन्थ है । इन्होंने न्याय दर्शन से प्रभावित होकर अपने ग्रन्थ की रचना की थी। इस ग्रंथ की व्यापकता एवं मोलिकता के कारण इस पर अनेक टीकायें लिखी गयी हैं । (१) दाक्षिणात्य शैवाचायं व्योमशिखाचायं ने 'ब्योमवती' संज्ञक भाष्य की रचना की है जो 'पदार्थसंग्रह' का सर्वाधिक प्राचीन भाष्य है। ये हर्षवर्धन के समसामयिक थे । इन्होंने प्रत्यक्ष और अनुमान के अतिरिक्त शब्द को भी प्रमाण माना है । ( ) उदयनाचार्य (s. सिद्ध- नैयायिक ) ने 'किरणावली' नामक भाष्य की रचना की है । ( ३ ) 'पदार्थधमंसंग्रह' के तृतीय भाष्यकार वंगदेशीय विद्वान् श्रीधराचार्य थे । इन्होंने 'न्यायकन्दली' नामक भाष्य का प्रणयन किया । इनका समय ९९१ ई० है । वैशेषिक सूत्र के पश्चात् इस दर्शन का अत्यन्त प्रौढ़ ग्रन्थ प्रशस्तपादभाष्य माना जाता है। [ 'पदार्थधमं संग्रह' की प्रसिद्धि प्रशस्तपादभाग्य के रूप में है ] यह वैशेषिक दर्शन का आकर ग्रन्थ है । इस ग्रन्थ में जगत् की सृष्टि एवं प्रलय, २४ गुणों का विवेचन, परमाणुवाद एवं प्रमाण का विस्तारपूर्वक विवेचन है और ये विषय कणाद के सिद्धान्त के निश्चित बढ़ाव के द्योतक हैं ।