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विक्रमसेन चम्पू]
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[विक्रमसेन चम्पू
है, जिसे पढ़कर वह आन्दातिरेक से भर जाता है। राजकीय प्रमदवन में दोनों मिलते हैं। तत्पश्चात् भरत मुनि द्वारा लक्ष्मी स्वयंवर नाटक खेलने का आयोजन होता है, जिसमें उर्वशी को लक्ष्मी का अभिनय करना है। प्रमदवन में ही, संयोगवश, पुरूरवा की पत्नी, रानी औशीनरी, को उर्वशी का प्रेम-लेख मिल जाता है और वह कुपित होकर दासी के साथ लौट जाती है। अभिनय करये समय उवंशी पुरुरवा के प्रेम में निमग्न हो जाती है, और उसके मुंह से पुरुषोत्तम के स्थान पर, भ्रम से, पुरुरवा नाम निकल पड़ता है। यह सुनकर भरत मुनि क्रोधित होकर उसे स्वगच्युत होने का शाप देते हैं। तब इन्द्र उवंशी को यह आदेश देते हैं कि जब तक पुरूरवा तेरे पुत्र का मुंह न देख ले, तब तक तुम्हें मत्यलोक में ही रहना पड़ेगा। राजधानी लौटकर राजा उर्वशी के विरह में व्याकुल हो जाता है और वह मत्यलोक में आकर राजा की विरहदशा का अवलोकन करती है । उसे अपने प्रति राजा के अटूट प्रेम की प्रतीति हो जाती है। उर्वशी की सखियां राजा के पास उसे सौप कर स्वर्गलोक को चली जाती हैं और दोनों उल्लासपूर्ण जीवन व्यतीत करने लग जाते हैं।
कुछ समयोपरान्त पुरूरवा और उबंशी गन्धमादन पर्वत पर जाकर विहार करते हैं, एक दिन मन्दाकिनी के तट पर खेलती हुई एक विद्याधर कुमारी को पुरुरवा देखने लगता है और उर्वशी कुपित होकर कात्तिकेय के गन्धमादन उद्यान में चली जाती है । वहां स्त्री का प्रवेश निषिद्ध था । यदि कोई स्त्री जाती तो लता बन जाती थी । उर्वशी भी वहां जाकर लता के रूप में परिवर्तित हो जाती है और राजा उसके वियोग में उन्मत की भांति विलाप करते हुए पागल की भांति निर्जीव पदार्थों से उवंशी का पता पूछने लगता है। उसी समय आकाशवाणी द्वारा यह निर्देश प्राप्त होता है कि यदि पुरुरवा सङ्गमनीय मणि को अपने पास रखकर लता बनी हुई उवंशी का आलिंगन करे तो बह पूर्ववत् उसे प्राप्त हो जायगी। राजा वैसा ही करता है और दोनों लौटकर राजधानी में सुखपूर्वक रहने लगते हैं। जब वे दोनों बहुत दिनों तक वैवाहिक जीवन व्यतीत करते हुए रहते हैं, तभी एक दिन वनवासिनी स्त्री एक अल्पवयस्क युवक के साथ बाती है और उसे वह सम्राट का पुत्र घोषित करती है। उसी समय उर्वशी का शाप निवृत्त हो जाता है और वह स्वर्गलोक को चली जाती है। उर्वशी के वियोग में राजा व्यषित हो जाते हैं और पुत्र को अभिषिक्त कर वैरागी बनकर वन में चले जाने को सोचते हैं। उसी समय नारद जी का आगमन होता है जिनसे उसे यह सूचना मिलती है कि इन्द्र के इच्छानुसार उर्वशी जीवन पर्यन्त उसकी पत्नी बनकर रहेगी। महाकवि कालिदास ने इस त्रोटक में प्राचीन कथा को नये रूप में सजाया है। भरत का शाप, उर्वशी का रूप परिवत्तंन तथा पुरुरवा का प्रलाप आदि कवि की निजी कल्पना हैं। इसमें विप्रलम्भशृङ्गार का अधिक वर्णन है तथा नारी-सौन्दर्य का अत्यन्त मोहक चित्र उपस्थित किया गया है।
विक्रमसेन चम्पू-इस चम्पू के प्रणेता नारायण राय कवि हैं। इनका समय सत्रहवीं शताब्दी का अन्तिम चरण एवं अट्ठारहवीं शताब्दी का आदि चरण माना जाता है। इन्होंने अन्य में अपना जो परिचय दिया है उसके अनुसार ये मराठा शासन