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ईशावास्य या ईश उपनिषद् ]
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[ उत्तर पुराण
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'जयमंगला' की भूमिका में यह सिद्ध किया है कि यह रचना शंकराचार्य को न होकर शंकर नामक किसी बौद्ध विद्वान् की है । वाचस्पति मिश्र कृत 'सांख्यतत्त्वकौमुदी', नारायण तीर्थ रचित 'चन्द्रिका' ( १७ वीं शताब्दी ) एवं नरसिंह स्वामी की 'सांख्यतरु- वसन्त' नामक टीकाएँ भी प्रसिद्ध हैं । इनमें 'सांख्यतत्त्वकौमुदी' [ हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशित, अनु० डॉ० आद्याप्रसाद मिश्र ] सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण टीका है । 'सांख्यकारिका' में ७१ कारिकाएँ हैं जिनमें सांख्यदर्शन के सभी तत्त्वों का निरूपण है ।
आधारग्रन्थ - १. भारतीय दर्शन-आ० बलदेव उपाध्याय २. सांख्यतत्वकीमुदी ( हिन्दी टीका ) डॉ० आद्याप्रसाद मिश्र ।
ईशावास्य या ईश उपनिषद् - यह 'शुक्ल यजुर्वेद संहिता' ( काण्व शाखा ) का अन्तिम या ४० वाँ अध्याय हैं। इसमें कुल १८ पद्य हैं तथा प्रथम पद्य के आधार पर इसका नामकरण किया गया है ।
ईशावास्यामिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् ।
तेन त्यक्तेन भुल्जीथा मागृधः कस्य स्विद् धनम् ॥ १
इसमें जगत् का संचालन एक सर्वव्यापी अन्तर्यामी द्वारा होने का वर्णन है । द्वितीय मन्त्र में कर्म सिद्धान्त का वर्णन करते हुए निष्काम भाव से कर्म करने का विधान है। तथा सर्वभूतों में आत्म-दर्शन तथा विद्या और अविद्या के भेद का वर्णन है । तृतीय मन्त्र में अज्ञान के कारण मृत्यु के पश्चात् प्राप्त होने वाले दुःख का वर्णन तथा चोथे से सातवें में ब्रह्मविद्या-विषयक मुख्य सिद्धान्तों का वर्णन है । नवें से ग्यारहवें श्लोक में विद्या और अविद्या के उपासना के तत्त्व का निरूपण तथा कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड के पारस्परिक विरोध एवं समुच्चय का विवेचन है ।
ज्ञान और विवेक से रहित कोरे कर्मकाण्ड की आराधना करनेवाले व्यक्ति घोर अन्धकार में प्रवेश कर जाते हैं । अतः ज्ञान और कर्म के साथ चलने वाला व्यक्ति शाश्वत जीवन तथा परमपद प्राप्त करता है। बारह से चोदह श्लोक में सम्भूति एवं असम्भूति की उपासना के तत्व का निरूपण है । पन्द्रह से सोलह श्लोक में भक्त के लिए अन्तकाल परमेश्वर की प्रार्थना पर बल दिया गया है और अन्तिम दो श्लोकों में शरीरत्याग के समय प्रार्थना तथा परमधाम जाते समय अग्नि की प्रार्थना का वर्णन है । इसमें एक परमतत्त्व की सर्वव्यापकता, ज्ञानकर्मसमुच्चयवाद का निदर्शन, निष्काम कर्मवाद की ग्राह्यता, भोगवाद की क्षणभंगुरता, अन्तरात्मा के विरुद्ध कार्य न करने का आदेश तथा आत्मा के सर्वव्यापक रूप का ज्ञान प्राप्त करने का उपदेश है ।
उत्तर पुराण - यह जैनियों का पुराण है जिसकी रचना जिनसेन के शिष्य गुणभद्र द्वारा उनके परिनिर्वाण के बाद हुई थी। इसे आदिपुराण ( जैनियों का अन्य पुराण ) का उत्तरार्द्ध माना जाता है । [ दे० आदिपुराण ] कहते हैं कि 'आदिपुराण' के ४४ सगँ लिखने के पश्चात् ही जिनसेन जी का निर्वाण हो गया था तदनन्तर उनके शिष्य गुणभद्र ने 'आदिपुराण' के उत्तर अंश को समाप्त किया। इस पुराण में २३ तीर्थकरों का' जीवनचरित वर्णित है जो दूसरे तीर्थकर अजितसेन से लेकर २४ वें तीर्थंकर