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नागार्जुन]
( २३३)
[नागानन्द
संवाद, दमयन्ती का अन्योन्यदर्शन और तन्मूलक रसानुभूति, नल द्वारा परतन्त्रता की निन्दा। नल द्वारा दमयन्ती के समक्ष इन्द्र का सन्देश सुनाया जाना, दमयन्ती का देवताओं के प्रति अनिच्छा प्रकट करना तथा नल का देव-वैभव वर्णन करना, दमयन्ती का विषण्ण होना एवं प्रियंवदिका का नल को उत्तर देना, नल का दमयन्ती के भवन से प्रस्थान करना । उत्कण्ठा-पूर्ण स्थिति में हरचरणसरोज ध्यान के साथ किसी-किसी तरह नल द्वारा रात्रियापन । ___ 'नलचम्पू' में नल-दमयन्ती की पूरी कथा वणित न होकर आधे वृत्त का ही वर्णन किया गया है। यह शृङ्गारप्रधान रचना है, अतः इसकी सिद्धि के लिए कई मनोरंजक घटनाओं की योजना की गई है । ( अन्य विवरण के लिए देखिए-त्रिविक्रमभट्ट)। ___ आधार ग्रन्थ-नलचम्पू-( हिन्दी अनुवाद ) चौखम्बा प्रकाशन अनु० श्री कैलासपति त्रिपाठी।
नागार्जुन-चौरदर्शन के असाधारण विद्वानों में नागार्जुन का नाम लिया जाता है । ये शून्यवाद (बोरदर्शन का एक सिद्धान्त ) के प्रवर्तक थे। ये विदर्भ के एक ब्राह्मण के यहाँ उत्पन्न हुए थे और भागे चल कर बीवधर्म में दीक्षित हुए। [शून्यवाद के लिए दे० बोटदर्शन ] । इनका समय १६६ से १९६ ई० माना जाता है। इन्होंने सर्वप्रथम शून्यवाद को दार्शनिक रूप दिया था। चीनी तथा तिम्बती भाषा में इनके २० ग्रन्थों के अनुवाद प्राप्त होते हैं जिनमें १२ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। इनकी रचनाओं के नाम हैं-माध्यमिक कारिका (माध्यमिक शास्त्र), दशभूमिविभाषाशास्त्र, महाप्रज्ञापारिमितासूत्र-कारिका, उपायकोशल्य,प्रमाण-विध्वंसन, विग्रह-व्यावर्तिनी, चतुःस्तव, युक्ति-षष्ठिका, शून्यता-सप्तति, प्रतीत्यसमुत्पादहृदय, महायान विंशक तथा सुहल्लेख, इनमें से केवल दो ही अन्य मूलरूप में (संस्कृत में ) उपलब्ध होते हैं-'माध्यमिक कारिका' एवं 'विग्रह-व्यावतिनी।
'माध्यमिक कारिका' की रचना २७ प्रकरणों में हुई है और 'विग्रहम्यावतिनी' में ७२ कारिकाएं हैं। दोनों ग्रन्थों में शून्यवाद का प्रतिपादन कर विरोधियों के तक का निरास किया गया है।
आधार ग्रन्थ-१. बौद्धदर्शन-आ० बलदेव उपाध्याय २. बौद्धधर्म के विकास का इतिहास-डॉ० गोविन्दचन्द्र पाण्डेय ३. संस्कृत साहित्य का इतिहास-गैरोला।
नागानन्द-यह पांच अंकों का नाटक है जिसके प्रणेता महाकवि हर्षवर्धन हैं। इसमें कवि ने विद्याधरराज के तनय जीमूतवाहन की प्रेमकथा एवं त्यागमय जीवन का वर्णन किया है। इस नाटक का स्रोत बोट-कथा है जिसका मूल 'बृहत्कथा' एवं 'वैतालपञ्चविंशति' में प्राप्त होता है।
प्रथम अंक-विद्याधरराज जीमूतकेतु वृत होने पर वानप्रस्थ ग्रहण करते हैं । वे इस अभिलाषा से वन की ओर प्रस्थान करते हैं कि उनके पुत्र जीमूतवाहन का राज्याभिषेक हो जाय; किन्तु पितृभक्त जीमूतवाहन राज्य का त्याग कर पिता की सेवा के निमित्त अपने मित्र आत्रेय के साथ बन प्रस्थान करता है। वह पिता के स्थान की