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रत्नावली]
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[ रत्नावली
नाटिका का नायक राजा उदयन धीरललित नायक के रूप में प्रस्तुत किया गया है। राजा राजनयिक तथा प्रशासनिक कार्यों को योग्य मन्त्रियों पर छोड़ कर तथा विश्वस्त चित्त से पूरी निश्चितता के साथ अपने मित्र विदूषक की सहायता लेकर वासवदत्ता के प्रणय में लीन हो जाता है। "राज्यं निर्जितशत्रुयोग्यसचिवे न्यस्तः समस्तो भरः सम्यक् पालनलालिताः प्रशमिताशेषेप्रसर्गाः प्रजाः। प्रद्योतस्य सुता वसन्तसमयस्त्वं चेति नाम्ना धृति कामः काममुपैस्वयं मम पुनर्मन्ये महानुत्सवः।" १९ । “राज्य के सभी शत्रु परास्त कर दिये गये, योग्य मन्त्री पर सम्पूर्ण कार्यभार सौंप दिया गया। प्रजायें अच्छी रीति से पालित होने के कारण निरुपद्रव हैं तब प्रद्योतसुता वासवदत्ता है, तुम हो सब तरह से यह महोत्सव मेरे लिये है, कन्दपं का तो इसके साथ नाममात्र का सरोकार है।"
राजा के इस कथन से उसके चरित्र का दुर्बल पक्ष व्यंजित होता है, और वह अपने उत्तरदायित्व के प्रति जागरूक नहीं दिखाई पड़ता। पर, यहां कवि ने राजा के अन्य रूप का चित्रण न कर केवल उसके प्रेमिल व्यक्तित्व को ही प्रस्तुत किया है। यहां उदयन का व्यक्तित्व प्रेमी, कलाप्रिए तथा विलासी का है। जहाँ तक प्रेम का सम्बन्ध है, वह दक्षिण नायक के रूप में चित्रित हुआ है। वह सागरिका के प्रति आसक्त होते हुए भी वासवसत्ता से अनुराग रखते हुए उसका सम्मान करता हैं तथा उसे रुष्ट करना नहीं चाहता । वासवदत्ता के प्रति उसका सच्चा प्रेम है तथा अपने प्रति वासवदत्ता के अनन्य प्रेम का विश्वास भी है । सागरिका के प्रति उदयन के प्रेम प्रकट होने तथा पादपतन के बाद भी राजा पर प्रसन्न न होने एवं उदयन की चिन्ता बढ़ जाने के वर्णन में इस तथ्य की पुष्टि होती है। राजा अपनी विवर्धित चिन्ता का वर्णन विदूषक से करता है-प्रिया मुञ्चत्या स्फुटमसहना जीवितमसौ प्रकृष्टस्य प्रेम्णः स्खलितमविषा हि भवति ।।" ३१५ "निश्चय ही मेरी प्रिया प्राण त्याग देगी क्योंकि गाढ़े स्नेह की त्रुटि भयानक होती है।" प्रथमतः सागरिका के प्रति उसका प्रेम वासनामय लगता है। वह आन्तरिक नहीं प्रतीत होता । क्योंकि सागरिका के विरह में व्यथित होने पर भी वासवदत्ता के आगमन के कारण उसके प्रेम का भय में परिणत हो जाना राजा के प्रेम को मांसल सिद्ध करता है। वह वासवदत्ता से ऐसी बातें करता है कि सागरिका के प्रति उसका पाकर्षण शिष्टाचार मात्र तथा बाहरी है। उसके इस असत्याचरण से उसका चरित्र दूषित हो जाता है, और वह कामलिप्सु व्यक्ति के ही रूप में प्रदर्शित होता है। "जिस समय बह सागरिका को अपने प्रेम का विश्वास दिलाने के बाद पुनः वासबदत्ता के आने पर उसे अपने असत्य वचन से मनाने का प्रयत्न करता है, उस समय बह धृष्ट नायक की कोटि में पहुंचता प्रतीत होता है।" पर, सागरिका के विरह में उसकी वासना जल जाती है और उसका प्रेम उस समय उज्ज्वल हो जाता है, जब सामरिका को बलने से बचाने के लिए वह विदूषक के रोकने पर भी अपने प्राणों की बाबी लगा कर भयंकर अग्नि की लपटों में कूद पड़ता है।
राणा व्यवहारपटु, कोमल तथा शिष्ट है। वह परिजनों तथा सामान्य दासी के प्रति भी बहवयता प्रदर्शित करते हुए कोमल भाषा का प्रयोग करता है। उसके कपोप