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कविराज धोषी ]
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[. कविराज धोयी
१८३६ ई० में हुआ था और निधन १९०६ ई० में हुआ । ग्रन्थ का रचनाकाल १८७० ई० है । इस काव्य में चार उल्लास हैं और सीताराम नामक किसी परमभागवत ब्राह्मण की कथा वर्णित है । इसमें मुख्यतः तीर्थयात्रा का वर्णन है और नगरों के वर्णन में कवि ने अधिक रुचि ली है । द्वितीय उल्लास में अयोध्या का वर्णन करते हुए संक्षेप में रामायण की सम्पूर्ण कथा का उल्लेख किया गया है। इसके गद्य एवं पद्य दोनों ही प्रौढ़ हैं तथा यत्रतत्र यमक एवं श्लेष से युक्त पंक्तियां भी दिखाई पड़ती हैं। कथा का प्रारम्भ इन पंक्तियों से होता है
वेदव्रतविरुद्ध सूक्तितरुणी वेणीकृपाणीभव
द्वाणीदुग्धत रंगिणी शशरणीभूतान्त रंगो गुरुः ।
कारुण्याजववीचिकान्तरसदा संचारशीतीभव
स्वान्तः स्वां मतिमातनोत्त्रिपथगायात्रा मिषाद्रक्षणे ।। ११८२
इस ग्रन्थ का प्रकाशन १९५० ई० में दि यूनिर्वासटी मैन्युस्क्रिप्ट लाइब्रेरी, त्रिवेन्द्रम हो चुका है।
आधारग्रन्थ--- चम्पूकाव्यों का आलोचनात्मक एवं ऐतिहासिक अध्ययन — डॉ० छविनाथ त्रिपाठी ।
कविराज धांयी - 'पवनदूत' नामक संदेशकाव्य के रचयिता । इस काव्य की रचना महाकवि कालिदास विरचित मेघदूत के अनुकरण पर हुई है। धोयी के कई नाम मिलते हैं - धूयि, धोयी, धोई और धोयिक । ये बंगाल के राजा लक्ष्मणसेन के दरबारी कवि थे । इनका समय विक्रम संवत् द्वादश शतक का उत्तरार्ध एवं त्रयोदश शतक का पूर्वाधं है । श्रीधरदास कृत 'सदुक्तिकर्णामृत' में धोयी के पद्य उद्धृत हैं जो शक सं० ११२७ या १२०६ ई० का है । इनके सम्बन्ध में अन्य कोई सूचना नहीं प्राप्त होती । इनकी जाति के सम्बन्ध में भी विवादास्पद मत प्रचलित हैं । म० म० हरप्रसाद शास्त्री के अनुसार धोयी पालधिगण तथा कश्यप गोत्र के राढीय ब्राह्मण हैं। इनके वैद्य जातीय होने का आधार वैद्यवंशावली ग्रन्थों में दुहिर्सेन या धूयिसेन नाम का उल्लिखित होना है ।
पुण्डरीकाक्षसेनस्य दुहिसेनः सुतोऽभवत् ।
धरस्य त्रिपुराख्यस्य तनयागर्भसम्भवः ॥ ( कवि कण्ठहार )
सुधांशुरत्रेरिव पुण्डरीकसेना तनुजोऽजनि धूयिसेनः । ( चन्द्रप्रभा पृ० २१३ ) 'गीतगोविन्द' ११४ से ज्ञात होता है कि लक्ष्मणसेन के दरबार में उमापतिधर, शरण, गोवर्धन, धोयी और जयदेव कवि रहते थे । इन्हें कविराज की उपाधि प्राप्त हुई थी । 'पवनदूत' के श्लोक सं० १०१ एवं १०३ में कवि ने अपने को 'कविक्ष्माभृतां चक्रवर्ती' एवं 'कवि नरपति' कहा है ।
दतिव्यूहं कनक्लतिकां चामरं हेमदण्डं
श्री
यो गीडेंद्रादलभत कंविक्ष्माभृतां चक्रवर्ती |
रसिकप्रीति हेतोर्मनस्वी
काव्यं सारस्वतमिव महामंत्रमेतज्जगाद ॥ ( पवन ० १०१ )