________________
नागेशभट्ट]
( २३५)
[ नाटककार कालिदास
उसी समय गौरी प्रकट होकर जीमूतवाहन को जीवित कर देती हैं और वह विद्याधरों का चक्रवर्ती बना दिया जाता है। गरुड़ आकर अमृत की वर्षा करता है और सभी सपं जीवित हो उठते हैं। सभी आनन्दित हो जाते हैं और भरतवाक्य के बाद नाटक समाप्त हो जाता है।
आधारग्रन्थ-१. नागानन्द (हिन्दी अनुवाद सहित )-चौखम्बा प्रकाशन २. संस्कृत नाटक ( हिन्दी अनुवाद)-डॉ० कीथ ३. संस्कृत कवि-दर्शन-डॉ० भोलाशंकर व्यास ।
नागेशभट्ट-प्रसिद्ध वैयाकरण । इनका समय १७ वीं शताब्दी के पूर्व है । इन्होंने व्याकरण के अतिरिक्त धर्म, दर्शन, ज्योतिष एवं काव्यशास्त्र की भी रचना की है । ये महाराष्ट्री ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम शिवभट्ट एवं माता का नाम सती देवी था। ये शृङ्गवेरपुर के राजा रामसिंह के सभापण्डित थे । इनका अन्य नाम नागोजिभट्ट था । इन्होंने 'महाभाष्य प्रदीप' ( कैयट रचित ) की टीका लिखी है जिसका नाम है 'महाभाष्यप्रदीपोद्योतन' । नागेश ने काव्यशास्त्र के ग्रन्थों पर भी टीका लिखी है । वे हैं-'काव्यप्रकाश' की प्रदीप टीका की टीका 'उद्योत', भानुदत्त की 'रसमंजरी' की टीका तथा पण्डितराज जगन्नाथ कृत 'रसगंगाधर' की 'गुरुममप्रकाश' टीका। इन्होंने अपनी टीकाओं में अनेक स्थलों पर स्वतन्त्र विचार भी व्यक्त किया है। इनके व्याकरण-विषयक अन्य स्वतन्त्र ग्रन्थ हैं-'लघुशब्देन्दुशेखर', 'बृहदशब्देन्दुशेखर', 'परिभाषेन्दुशेखर', 'लघुमंजूषा', 'स्फोटवाद' तथा 'महाभाष्यप्रत्याख्यान-संग्रह' । उपर्युक्त सभी ग्रन्थों की गणना महान् ग्रन्थों में होती है और साम्प्रतिक विद्वानों में उनका अत्यधिक प्रचार है।
नाटककार कालिदास-कवि के रूप में तो कवि कालिदास की ख्याति है ही, नाटककार के रूप में भी इनकी कला की चरम समृद्धि देखी जाती है। इन्होंने अपने पूर्व के संस्कृत नाट्य-साहित्य को अपनी रचनाओं के द्वारा प्रौढ़ता प्रदान की है। कालिदास के पूर्व भास ने तेरह नाटकों की रचना की थी, जिनमें संस्कृत नाट्य-कला का प्रारम्भिक विकास दिखाई पड़ता है। कालिदास ने अपनी रचनाओं के द्वारा उसे समृद्ध किया। इन्होंने तीन नाटकों की रचना की है, जिनमें इनकी कला का क्रमिक विकास दिखाई पड़ता है। 'मालविकाग्निमित्र' इनकी प्रथम नाट्य-कृति है, अतः इसमें उनकी कला का अंकुर दिखाई पड़ता है। "विक्रमोर्वशीय' में उसका सहज विकास है तथा 'शकुन्तला' में कवि की नाट्य कला का चरमोत्कर्ष दिखायी पड़ता है।
कालिदास के नाटक भारतीय नाट्यशास्त्र के अनुरूप हैं या यों कहा जाय कि भरत द्वारा प्रतिपादित नाट्यसिद्धान्तों का कवि ने प्रायोगिक रूप प्रदर्शित किया है, तो कोई अत्युक्ति नहीं । भारतीय नाट्यशास्त्र में नाटक के प्रमुख तीन तत्व माने गए हैंवस्तु, नेता और रस। इनमें सर्वाधिक महत्व रस-योजना को ही प्राप्त हुआ है । अर्थात् भारतीय नाटक रसप्रधान हुआ करते हैं क्योंकि प्रारम्भ में रसों का निरूपण नाटकों के ही लिए किया गया था। भारतीय नाटक प्रायः सुखान्त हुआ करते हैं और