________________
मुद्राराक्षस ]
( ४०९ )
[ मुद्राराक्षस
कथानक में गत्यात्मकता, क्रमबद्धता, प्रवाहमयता, गठन की सुव्यस्था, घटना- गुम्फन की चारुता तथा नाटकीय औचित्य का सुन्दर समन्वय दिखाई पड़ता है । अंकों के विभाजन में भी विशाखदत्त ने नवीनता प्रदर्शित की है। अन्य नाटककारों ने अंकों में ही नाटक का विभाजन किया है, जबकि 'मुद्राराक्षस' में अंकों के बीच दृश्यों का भी नियोजन किया गया है। उदाहरण के लिए, द्वितीय एवं तृतीय अंकों में कई दृश्यों का विधान है। द्वितीय अंक में दो दृश्य हैं - प्रथम जीर्णविष संपेरा का मार्ग एवं द्वितीय राक्षस के गृह का । तृतीय अंक में भी तीन दृश्य हैं-दो सुगांगप्रासाद के एवं तृतीय चाणक्य की कुटिया का । इस नाटक में भावी घटनाओं की सूचना देने के लिए 'पताकास्थानक' का विधान है । इसमें अनेक छोटी-छोटी घटनाएं विभिन्न स्थानों पर घटित होती हैं, पर वे निरर्थक न होकर मूलकथा से दिखाई पड़ती हैं । 'मुद्राराक्षस' में नाटककार का उद्देश्य है चन्द्रगुप्त के शक्ति को स्थायी बनाना और यह तभी संभव है, जबकि उसका प्रसिद्ध परम मित्र बन जाय । नाटककार ने इसी उद्देश्य की विकास किया है, और समस्त घटनाएं त्वरित गति से होती हुई प्रदर्शित की गयी हैं । 'मुद्राराक्षस' में कथानक से सम्बद्ध घटनाओं का बाहुल्य है, पर नाटककार ने अपने कौशल के द्वारा विभिन्न साधनों का प्रयोग कर उनकी सूचना दी है। जैसे; प्रथम अंक के प्रारम्भ में चाणक्य के स्वगत - कथन में अनेक कथाओं की सूचना प्राप्त होती है, जिससे दर्शक शेष कथा को सुगमता से समझ लेता | अनेक अनावश्यक घटनाओं की सूचना दूत के संदेशों, पात्रों के स्वगत कथनों एवं पात्रों की उक्तियों द्वारा देकर नाटककार ने अपनी कृति को अधिक आकर्षक तथा
अनुस्यूत शांसन एवं प्रतिद्वन्द्वी राक्षस चन्द्रगुप्त का पूर्ति के लिए इसी लक्ष्य की
घटनाओं का ओर उन्मुख
सुन्दर बनाया है ।
आवश्यकता
संकलन-त्रय के विचार से 'मुद्राराक्षस' एक सफल नाव्यकृति है । इसमें ऐसी कोई भी घटना नहीं है, जिसमें एक दिन से अधिक समय लग सके । अल्प समय में अधिकाधिक घटनाओं को दर्शाया गया है। 'मुद्राराक्षस' का समस्त कथानक एक वर्ष से कुछ ही अधिक समय का रखा गया है। इसमें मंचीय को दृष्टि में रखकर विभिन्न स्थानों के दृश्य नहीं प्रस्तुत किये गए हैं। मुख्य रूप से तीन ही स्थल दिखाये गए हैं- पाटलिपुत्र नगर, मलयकेतु की राजधानी, सैन्य शिविर एवं अन्य निकटवर्ती स्थान । ये सारी दृश्य-योजनाएँ नाटक के कार्य व्यापार के ही अनुकूल हैं । विभिन्न प्रासंगिक क्रियाओं द्वारा एक ही प्रभाव उत्पन्न करने के कारण इसमें प्रभान्विति का तत्व दर्शाया गया है ।
घटनाओं के
यह वीररसप्रधान नाटक है और इसी की योजना में घटनाएँ गुम्फित की गयी हैं । प्रथम अंक के प्रारम्भ में चाणक्य द्वारा राक्षस को चन्द्रगुप्त का अमात्य बनाने की अभिलाषा ही इसके कथानक का 'बीज' है । राक्षस की मुद्रा प्राप्त होना तथा शकटदास की ओर से लिखित पत्र को मुद्रांकित करना एवं मलयकेतु का छला जाना आदि घटनायें 'बिन्दु' हैं । इसी 'बिन्दु' के आधार पर इसका नामकरण 'मुद्राराक्षस' किया गया है । विराधगुप्त क' राक्षस को उसके समस्त कार्यों की विफलता बताना