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कवि कर्णपूर]
( १०५)
[कार्तवीयं प्रबन्ध
इतिहास-आ० बलदेव उपाध्याय । ४. संस्कृत सुकवि-समीक्षा-आ० बलदेव उपाध्याय । ५. संस्कृत काव्यकार-डॉ० हरिदत्त शास्त्री। ६. संस्कृत साहित्य का नवीन इतिहासकृष्णचैतन्य (हिन्दी अनुवाद )। ७. संस्कृत के कवि और काव्य-डॉ० रामजी उपाध्याय । ८. राजतरंगिणी कोश-श्रीरामकुमार राय । ९. राजतरंगिणी (हिन्दी अनुवाद सहित )-पण्डित पुस्तकालय, काशी ।
कवि कर्णपूर-अलंकारशास्त्र के आचार्य। इन्होंने 'अलंकारकोस्तुभ' नामक काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ की रचना की है। इनका समय १६वीं शताब्दी है । कवि पर्णपूर के पिता का नाम शिवानन्द था जो महाप्रभु चैतन्य के शिष्य थे। कवि कर्णपूर का नाम परमानन्ददास सेन था और ये बंगाल के नदिया जिले के निवासी थे। इनका जन्मकाल १५२४ ई० है । 'अलंकारकौस्तुभ' की रचना दस किरणों ( अध्यायों) में हुई है और काव्य-लक्षण, शब्दार्थ, ध्वनि, गुणीभूतव्यंग्य, रसभावभेद, गुण, शब्दालंकार, अर्थालंकार, रीति एवं दोष का वर्णन किया गया है। इस पर तीन टीकाएं हुई हैं-दीधितिप्रकाशिका श्री वृन्दावनचन्द्र तर्कालंकार चक्रवर्ती कृत, सारबोधिनी श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती कृत (प्रकाशित, मूलग्रन्थ के साथ मुर्शिदाबाद से ) तृतीय टीका के रचयिता लोकनाथ चक्रवर्ती थे। इन्होंने 'काव्यचन्द्रिका' नामक अन्य काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ की भी रचना की थी किन्तु यह ग्रन्थ अनुपलब्ध है। महाप्रभु चैतन्य के जीवन पर रचित 'चैतन्यचन्द्रोदय' नामक नाटक की रचना कवि कर्णपूर ने १५७२ ई० में की थी।
आधारप्रन्थ-भारतीय साहित्यशास्त्र भाग-१, आ० बलदेव उपाध्याय ।
काकुत्स्थविजय चम्पू-इस चम्पूकाव्य के प्रणेता बल्लीसहाय हैं । दे० आचार्य दिग्विजय चम्पू । [इनका जीवनवृत्त 'आचार्य दिग्विजय चम्पू के विवरण में है ] इसमें कवि ने 'वाल्मीकि रामायण' के आधार पर रामचन्द्र की कथा का वर्णन किया है । यह काव्य आठ उल्लासों में समाप्त हुआ है और अभी तक अप्रकाशित है। इसका विवरण इण्डिया आफिस कैटलॉग, ४०३८।२६२४ में है । इस चम्पूकाव्य की रचनाशैली अत्यन्त साधारण है । इसमें कवि ने अपने गुरु का नाम नारायण दिया है।
काकुत्स्थविजयसंझं काव्यं बल्लीसहायकविरचितम् ।
'पर्याप्तमतुलभाग्यादुल्लासेनाष्टमेन च सहैव ॥ आधारग्रन्थ-चम्पूकाव्य का आलोचनात्मक एवं ऐतिहासिक अध्ययन-डॉ. छविनाथ त्रिपाठी।
कार्यवीर्य प्रबन्ध-इस चम्पूकाव्य के प्रणेता युवराज आश्विन श्रीरामवर्मा हैं। ये ट्रावनकोर के युवराज थे। इनका स्थितिकाल १७६५ से १७९४ ई० है। इसमें कवि ने रावण और कार्तवीर्य के युद्ध एवं कार्तवीर्य की विजय का वर्णन किया है। ग्रन्थ में वीररस की प्रधानता है और रचनाशैली में प्रौढ़ता परिलक्षित होती है। युद्ध-वर्णन में ओजस्विता का चित्र देखने योग्य है
रे दोर्मदान्ध ! दशकन्धर चन्द्रहासः, प्रत्यर्थिपार्थिवकरोटिनिशातधारः । आलिम्पतस्तव परं निजदोषपंकः, कळं कटूक्तिसरणि तरसा छिनतु ॥ २६ ॥