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रसेन्द्रचिन्तामणि ]
[राघवपाण्डवीय
आधारग्रन्थ-आयुर्वेद का बृहत् इतिहास-श्री अत्रिदेव विद्यालंकार ।
रसेन्द्रचिन्तामणि-आयुर्वेदशास्त्र का ग्रन्थ । इसके रचयिता ढून्ढीनाथ हैं जो कालनाथ के शिष्य थे। इसका रचनाकाल १३ एवं १४वीं शती के आसपास है। यह रसशास्त्र का' अत्यधिक प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसके लेखक ने लिखा है कि इसकी रचना अनुभव के आधार पर हुई है । इस ग्रन्थ का प्रकाशन रायगढ़ से सं० १९९१ में हुआ था जिसे वैध मणिशर्मा ने स्वरचित संस्कृत टीका के साथ प्रकाशित किया था। ___ आधारग्रन्थ-आयुर्वेद का बृहत् इतिहास-श्री अत्रिदेव विद्यालंकार ।
रसेन्द्रचूड़ामणि-आयुर्वेदशास्त्र का ग्रन्थ। यह रसशास्त्र का प्रसिद्ध ग्रन्थ है जिसके रचयिता सोमदेव हैं। इनका समय १२ वीं एवं तेरहवीं शताब्दी का मध्य है । इसमें वर्णित विषयों की तालिका इस प्रकार है-रसपूजन, रसशाला-निर्माणप्रकार, रसशालासंग्राहण, परिभाषा मूषापुटयन्त्र, दिव्योषधि, ओषधिगण, महारस, उपरस, साधारणरस, यत्नधातु तथा इनके रसायन योग एवं पारद के १८ संस्कार । इसका प्रकाशन लाहौर से १९८९ संवत् में हुआ था।
आधारग्रन्थ-आयुर्वेद का बृहत् इतिहास-अत्रिदेव विद्यालंकार ।
रसेन्द्रसारसंग्रह-आयुर्वेद का ग्रन्थ । यह रसशास्त्र का अत्यन्त उपयोगी ग्रन्थ है। इसके रचयिता महामहोपाध्याय गोपालभट्ट हैं । पुस्तक का रचनाकाल १३ वीं शताब्दी है। इसमें पारद का शोधन, पातन, बोधन, मूच्र्छन, गन्धकशोधन, वक्रान्त, अभ्रक, ताल, मैन्सिल का शोधन एवं मारण आदि का वर्णन है। इसकी लोकप्रियता बङ्गाल में अधिक है । इसके दो हिन्दी अनुवाद हुए हैं-क-वैद्य धनानन्दकृत संस्कृतहिन्दी टीका । ख-गिरिजादयालु शुक्लकृत हिन्दी अनुवाद ।
आधारग्रन्थ-आयुर्वेद का बृहत् इतिहास-श्री अत्रिदेव विद्यालंकार । __ राघवपाण्डवीय-( महाकाव्य )-यह श्लेषप्रधान महाकाव्य है, जिसके रचयिता हैं कविराज । इस महाकाव्य में कवि ने प्रारम्भ से अन्त तक एक ही शब्दावली में रामायण और महाभारत की कथा कही है। स्वयं कवि ने अपने को वासवदत्ता के रचयिता सुबन्धु एवं बाणभट्ट की श्रेणी में अपने को रखते हुए 'भडिमामयश्लेषरचना' की परिपाटी में निपुण कहा है, तथा यह भी विचार व्यक्त किया है कि इस प्रकार का कोई चतुथं कवि है या नहीं, इसमें सन्देह है। सुबन्धुर्बाणभट्टश्च कविराज इति त्रयः । वक्रोक्तिमार्गनिपुणाश्चतुर्थी विद्यते न वा ।। ११४१ । इस कवि का वास्तविक नाम माधवभट्ट था और कविराज उपाधि थी। ये जयन्तीपुर में कादम्बवंशीय राजा कामदेव के सभा-कवि थे। कामदेव नरेश का शासन-काल ११८२-११८७ ई० है । इस महाकाव्य में १३ सर्ग हैं और सभी सर्गों के अन्त में कामदेव शब्द का प्रयोग किया गया है। प्रारम्भ से लेकर अन्त तक कवि ने रामायण तथा महाभारत की कथा का, श्लेष के सहारे, एक ही शब्द में निर्वाह किया है। राम-पक्ष का वर्णन युधिष्ठिर-पक्ष के साथ एवं रावण-पक्ष का वर्णन दुर्योधन-पक्ष के साथ किया गया है, पर कहीं-कहीं इसका विपर्यय भी दिखाई देता है । 'राघवपाण्डवीय' में महाकाव्य के सारे लक्षण पूर्णतः घटित हुए हैं। राम एवं युधिष्ठिर धीरोदात्त नायक हैं तथा वीर रस अंगी या प्रधान है। यथा