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कुंतक ]
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[ कुंतक
ने कुन्तक के एक श्लोक में अनेक दोष दर्शाये हैं। इससे ज्ञात होता है कि कुन्तक आनन्दवर्द्धन एवं महिमभट्ट के मध्य हुए होंगे । कुन्तक एवं अभिनवगुप्त एक दूसरे को उधृत नहीं करते, अतः वे समसामयिक ज्ञात होते हैं। इस प्रकार कुन्तक का समय दशम शतक का अन्तिम चरण निश्चित होता है । इनका एकमात्र ग्रन्थ 'वक्रोक्तिजीवित' ही है [ विशेष विवरण के लिए दे० वक्रोक्तिजीवित ] जो वक्रोक्ति सम्प्रदाय का प्रस्थान ग्रन्थ एवं भारतीय काव्यशास्त्र की अमूल्य निधि है । इसमें ध्वनि को काव्य की आत्मा मानने वाले विचार का प्रत्याख्यान कर वह शक्ति वक्रोक्ति को ही प्रदान की गयी है । इसमें वक्रोक्ति अलङ्कार के रूप में प्रस्तुत न होकर एक व्यापक काव्यसिद्धान्त के रूप में उपन्यस्त की गई है । 'वक्रोक्तिजीवित' में वक्रोक्ति के छः विभाग किये गये हैंवर्णवक्रता, पदपूर्वार्द्धवत्रता, पदोत्तरार्धवत्रता, वाक्यवक्रता, प्रकरणवक्रता एवं प्रबन्धवक्रता । उपचारवक्रता नामक भेद के अन्तर्गत कुन्तक ने समस्त ध्वनिप्रपंच का ( उसके अधिकांश भेदों का ) अन्तर्भाव कर दिया है । इन्होंने काव्य की परिभाषा इस प्रकार प्रस्तुत की है
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शब्दार्थों सहितो
वक्रकविव्यापारशालिनि ।
बन्धे व्यवस्थितो काव्यं तद्विदाह्लादकारिणि ॥ १७
'कुन्तक के अनुसार काव्य उस कवि कौशलपूर्ण रचना को कहते हैं जो अपने शब्दसौन्दर्य और अर्थ-सौन्दयं के अनिवार्य सामंजस्य द्वारा काव्य-ममंज्ञ को आह्लाद देती है ।" कुन्तक ने बतलाया है कि वक्रोक्ति में ( लोकोत्तर) अपूर्वं चमत्कार उत्पन्न करने की शक्ति है । यह काव्य का साधारण अलङ्कार न होकर अपूर्व अलङ्कार है । लोकोत्तरचमत्कारकारि वैचित्र्यसिद्धये ।
काव्यस्याऽयमलङ्कारः कोऽप्यपूर्वो विधीयते ॥ १२
वक्रोक्ति का लक्षण उपस्थित करते हुए कुन्तक का कहना है कि 'प्रसिद्ध कथन से भिन्न प्रकार की विचित्र वर्णनशैली ही वक्रोक्ति है । 'चतुरतापूर्ण कविकर्म ( काव्य निर्माण ) का कौशल, उसकी भङ्गी शैली या शोभा उससे भणिति अर्थात् ( वर्णन ) : कथन करना । विचित्र ( असाधारण ) प्रकार की वर्णन-शैली ही वक्रोक्ति कहलाती है ।' ( हिन्दी वक्रोक्तिजीवित - आ० विश्वेश्वर पृ० ५१ )
उभावेतावलङ्कार्यौ तयोः पुनरलङ्कृतिः ।
वक्रोक्तिरेव वैदग्ध्यभङ्गीभणितिरुच्यते ।। १।१०
कुन्तक ने काव्य के तीन प्रयोजन माने हैं-धर्मादि चतुवंगं की प्राप्ति की शिक्षा, व्यवहारादि के सुन्दर रूप की प्राप्ति एवं लोकोत्तर आनन्द की उपलब्धि ।
धर्मादिसाधनोपायः सुकुमारक्रमोदितः ।
काव्यबन्धोऽभिजातानां हृदयाह्लादकारकः ।। व्यवहारपरिस्पन्दसौंदर्य व्यवहारिभिः । सत्काव्याधिगमादेव नूतनौचित्य माप्यते ॥ चतुर्व गंफलस्वादमप्यतिक्रम्य तद्विदाम् । काव्यामृतरसेनान्तश्चमत्कारो वितन्यते ॥ १।३, ४, ५