________________
रंगनाथ ]
( ४८१ )
[लक्ष्मीधर भट्ट
के विभाव, अनुभाव, स्थायी, सात्त्विक एवं संचारी भावों का वर्णन है। पश्चिम विभाग में भक्तरस का विवेचन किया गया है तथा उसके शान्तभक्तिरस, प्रीति, प्रेम, वात्सल्य एवं मधुरभक्तिरस नामक भेद किये गए हैं। उत्तर विभाग में हास्य, अद्भुत, वीर, करुण, रौद्र, बीभत्स एवं भयानक रसों का वर्णन है। इसका रचनाकाल १५४१ ई. है। २: उज्ज्वलनीलमणि- इसमें 'मधुरशृङ्गार' का निरूपण है और नायक-नायिकाभेद का विस्तृत विवेचन किया गया है। इसमें शृङ्गार का स्थायीभाव प्रेमारति को माना गया है और उसके छह विभाग किये गए हैं-स्नेह, मान, प्रणय, राग, अनुराग एवं भाव । आचार्य ने 'उज्ज्वलनीलमणि' में नायक के चार प्रकारों के दो विभाग किये हैं-पति तथा उपपति एवं इनके भी दक्षिण, धृष्ट, अनुकूल एवं शठ के नाम से ९६ प्रकारों का वर्णन किया है। इसी प्रकार नायिका के दो विभाग किये गए हैंस्वकीया एवं परकीया और पुनः उनके अनेक प्रकारों का उल्लेख किया गया है। ३. नाटकचन्द्रिका-यह नाट्यशास्त्र का ग्रन्थ है जिसमें भरत मुनि के आधार पर नाटक के तत्त्वों का संक्षिप्त वर्णन है । रूपगोस्वामी के भतीजे जीवगोस्वामी ने 'भक्तिरसामृतसिन्धु' एवं 'उज्ज्वलनीलमणि' पर क्रमशः 'दुर्गमसङ्गमिनी' तथा 'लोचनरोचनी' नामक टीकाओं की रचना की है। इनके उपयुक्त तीनों ही ग्रन्थों के हिन्दी अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं।
__ आधार ग्रन्थ-१. भक्तिरसामृतसिन्धु-(१) हिन्दी व्याख्या-आ० विश्वेश्वर । (२) डॉ० रूपनारायण पाण्डेय । २. उज्ज्वलनीलमणि-हिन्दी टीका-डॉ० रूपनारायण पाण्डेय । ३. नाटकचन्द्रिका-हिन्दी टीका-पं० बाबूलाल शुक्ल ( चौखम्बा प्रकाशन )।
रंगनाथ-ज्योतिषशास्त्र के आचार्य । ये काशीनिवासी थे। इनका जन्म १५७५ ई० में हुआ था । रंगनाथ के माता-पिता का नाम मोजि एवं ववाल था। 'सूर्यसिद्धान्त' के ऊपर 'गूढार्थ प्रकाशिका' नामक इनकी टीका प्रसिद्ध है।
आधारग्रन्थ-भारतीय ज्योतिष-डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री।
लक्ष्मीधर भट्ट-राजधर्म के निबन्धकार । ये कान्यकुब्णेश्वर जयचन्द्र के पितामह गोविन्दचन्द के महासन्धिविग्रहिक (विदेश मन्त्री) थे। इनका समय बारहवीं शताब्दी का प्रारम्भ है । इनका ग्रन्थ 'कृत्यकल्पतरु' अपने विषय का अत्यन्त प्रामाणिक एवं विशालकाय निबन्ध ग्रन्थ है । यह ग्रन्थ चौदह काण्डों में विभाजित है, किन्तु अबतक सभी काण्ड प्रकाशित नहीं हो सके हैं। इसका 'राजधर्म' काण्ड प्रकाशित हो चुका है जिसमें राज्यशास्त्रविषयक तथ्य प्रस्तुत किये गए हैं। 'राजधर्मकाण्ड' इकोस अध्यायों में विभक्त है। प्रारम्भिक बारह अध्यायों में सप्तांग राज्य के सात अंग वर्णित हैं। तेरहवें तथा चौदहवें अध्यायों में षाड्गुष्यनीति तथा शेष सात अध्यायों में राज्य के कल्याण के लिए किये गए उत्सवों, पूजा-कृत्यों तथा विविध पद्धतियों का वर्णन है। इसके इक्कीस अध्यायों के विषय इस प्रकार हैं-राजप्रशंसा, अभिषेक, राजगुण, अमात्य, दुर्ग, वास्तुकर्मविधि, संग्रहण, कोश, दण्ड, मित्र, राजपुत्ररक्षा, मन्त्र, बागुष्यमन्त्र, यात्रा,
३१ सं० सा०