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भासं|
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[भास
शास्त्री ने १९०९ ई० में किया। इन्हें पपनाभपुरम् के निकट मनल्लिकारमठम् में स्वप्नवासवदत्तम्, प्रतिज्ञायौगन्धरायण, पञ्चरात्र, चारुदत्त, दूतघटोत्कच, अविमारक, बालचरित, मध्यमव्यायोग, कर्णभार तथा अरुभन की हस्तलिखित प्रतियां प्राप्त हुई। इन्हें 'दूतवाक्य' की एक खण्डित् हस्तलिखित प्रति भी तालपत्र पर प्राप्त हुई थी। सभी हस्तलेख मलयालम लिपि में थे। आगे चल कर गणपति शास्त्री को त्रिवेन्द्रम के राजाप्रासाद पुस्तकागार में प्रतिमा तथा अभिषेक नाटक की प्रतियां प्राप्त हुई। शास्त्री जी ने इनका सम्पादन कर १९१२ ई० में (भास कृत तेरह नाटकों को) प्रकाशित किया । ये सभी नाटक अनन्तशयन-संस्कृत ग्रन्थावली में प्रकाशित हुए हैं।
भास के नाटकों के सम्बन्ध में विद्वानों के तीन दल हैं। प्रथम मत के अनुसार ये सभी नाटक भासकृत ही हैं। इन नाटकों की रचना-प्रक्रिया, भाषा एवं शैली के आधार पर इनका लेखक एक ही व्यक्ति ज्ञात होता है तथा ये सभी नाटक कालिदास के पूर्व के ही जान पड़ते हैं । इन सभी नाटकों का रचयिता 'स्वप्नवासवदत्तम्' नामक नाटक का ही लेखक है । दूसरा दल इन नाटकों को भास कृत नहीं मानता और इनका रचयिता या तो 'मतविलास प्रहसन' का प्रणेता युवराज महेन्द्रविक्रम को या 'आश्चर्यचूडामणि' नाटक के लेखक शीलभद्र को मानता है। श्री बर्नेट का मत है कि इन नाटकों की रचना पाण्ड्य राजा राजसिंह प्रथम के शासनकाल ( ६७५ ई०) में हुई थी [बुलेटिन ऑफ स्कूल ऑफ ओरियन्टल स्टडिज भाग ३ पृ० ५२०-२१ ] । अन्य विद्वानों के अनुसार इन नाटकों का रचना काल सातवीं-आठवीं शताब्दी है और इनका रचयिता कोई दाक्षिणात्य कवि था। प्रो० सिलवों लेवी, विटरनित्स तथा सी० आर० देवधर इसी मत के पोषक हैं। तीसरा दल ऐसे विद्वानों का है जो इस नाटकों का कर्ता तो भास को ही मानता है किन्तु इनके वर्तमान रूप को उनका संक्षिप्त एवं रङ्गमंचोपयोगी रूप मानता है । ऐसे विद्वानों में डॉ० लेस्नी, प्रिन्ट्ज, वैनर्जी शास्त्री तथा सुखथनकर आदि हैं । दे० थॉमस-जनल ऑफ रॉयल एशियाटिक सोसाइटी १९२८ पृ० ८७६ एफ० एफ० तथा हिस्ट्री ऑफ संस्कृत लिटरेचर-दासगुप्त एवं दे पृ० १०७-१०८] । पर सम्पत्ति अधिकतर विद्वान् प्रथम मत के ही पोषक हैं। म० म० पं० रामावतार शर्मा भी तृतीय मत के थे [दे० शारदा संस्कृत पत्रिका वर्ष १, संख्या १]। डॉ. पुसासलकर ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'भास.: ए स्टडी' एवं श्री ए० एस० पी० 'अय्यर ने 'भास' नामक ( अंग्रेजी ग्रन्थ ) पुस्तक में प्रथम मत की ही पुष्टि अनेक प्रमाणों के आधार पर की है। इनके मत का सार इस प्रकार है
१-उपर्युक्त सभी नाटक 'नान्द्यते ततः प्रविशति सूत्रधारः' से प्रारम्भ होते हैं किन्तु परवर्ती नाटकों में यहां तक कि कालिदास के नाटकों में भी नान्दी पाठ के बाद यह वाक्य होता है। इसीलिए भास के नाटक 'सूत्रधारकृतारम्भः' कहे जाते हैं। २-इनमें प्रस्तावना का प्रयोग न होकर सर्वत्र स्थापना का व्यवहार किया गया है। स्थापना' में नाटक एवं नाटककार का भी संकेत नहीं है। अन्य संस्कृत नाटकों में प्रस्तावना में नाटक एवं नाटककार के विषय में भी कहा जाता है, अतः ये नाटक शास्त्रीय परम्परा के पूर्व रचित हुए हैं। ३-सभी नाटकों के भरतवाक्य का प्रयोग