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[ द्वितीय आर्यभट्ट
नृत्तं त्यजन्ति शिखिनोऽपि विलोक्य देवीं
तियंग्गता वरमयी न परं मनुष्या ॥ १।१८ दिनाग-बौढन्याय के जनक के रूप में आचार्य दिङ्नाग का नाम सुविख्यात है । (दे० बौद्धदर्शन ) ये बौद्ध-दर्शन के वर्चस्वी विद्वानों में हैं और भारतीय दार्शनिकों की प्रथम पंक्ति के युगद्रष्टाओं में इनका स्थान सुरक्षित है। तिब्बती परम्परा इन्हें कांजी के समीपस्थ सिंहवक्र नामक स्थान का निवासी मानती है । इनका जन्म सम्भ्रान्त ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनका समय चतुर्थ शताब्दी का उत्तरार्ध या पंचम शताब्दी का पूर्वाधं है। इनका नाम 'नागदत्त' था किन्तु बाद में आचार्य वसुबन्धु से दीक्षा लेने के पश्चात् इनका नाम दिङ्नाग हो गया। इनका निर्वाण उड़ीसा के ही एक वन में हुआ था। इन्होंने शास्त्रार्थ के निमित्त महाराष्ट्र, उड़ीसा तथा नालन्दा का भी परिभ्रमण किया था। इनके शिष्यों में शान्तरक्षित, कर्मशील एवं शंकरस्वामी हैं। न्याय-दर्शन के सम्बन्ध में इनके द्वारा सौ ग्रन्थों के प्रणयन की बात कही जाती है । इनका सर्वाधिक प्रसिद्ध ग्रन्थ है 'प्रमाण समुच्चय' । यह ग्रन्थ मूलरूप ( संस्कृत ) में उपलब्ध नहीं होता पंडित हेमवर्मा द्वारा अनूदित तिब्बती अनुवाद ही सम्प्रत्ति प्राप्त होता है। इसके ६ परिच्छेदों में न्यायशास्त्र के समस्त सिद्धान्तों का निरूपण है जिसकी विषय-सूची इस प्रकार है-प्रत्यक्ष, स्वार्थानुमान, परार्थानुमान, हेतु दृष्टान्त, अपोह एवं जाति । इनके अन्य ग्रन्थों का विवरण इस प्रकार है-१-प्रमाणसमुच्चयवृत्ति-यह 'प्रमाण समुच्चय' की व्याख्या है। इसका भी मूल रूप प्राप्त नहीं होता, तिब्बती अनुवाद उपलब्ध है । २-न्याय प्रवेश--यह मूल संस्कृत में प्राप्त होनेवाला दिङ्नाग कृत एकमात्र ग्रन्थ है । ३-हेतु चक्रहमरु- इसमें नौ प्रकार के हेतु वर्णित हैं। इसका तिब्बती अनुवाद मिलता है जिसके आधार पर दुर्गाचरण चटर्जी ने इसका संस्कृत में फिर से अनुवाद किया है। ४-प्रमाणशास्त्रन्यायप्रवेश, ५-आलम्बनपरीक्षा, ६-आलम्बन परीक्षा विधि, ७–त्रिकालपरीक्षा एवं ८-ममंप्रदीपवृत्ति आदि अन्य ग्रन्थ हैं। दे० बौख-दर्शन-आ० बलदेव ।
दिवाकर-ज्योतिषशास्त्र के आचार्य। इनका जन्म-समय १६०६ ई० है । इनके चाचा शिवदैवज्ञ अत्यन्त प्रसिद्ध ज्योतिषी थे जिनसे इन्होंने इस शास्त्र का अध्ययन किया था। दिवाकर ने 'जातकपद्धति' नामक फलितज्योतिष के ग्रन्थ की रचना की है । इसके अतिरिक्त मकरन्दविवरण एवं केशवीयपद्धति की प्रौढ़ मनोरम संज्ञक टीका अन्यों की भी इन्होंने रचना की है। इनका दूसरा मौलिक ग्रन्थ 'पद्धतिप्रकाश' है जिसकी सोदाहरण टीका स्वयं इन्होंने ही लिखी थी।
माधारग्रन्थ-भारतीय ज्योतिष-डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री।
द्वितीय आर्यभट्ट-ज्योतिषशास्त्र के आचार्य । ये भास्कराचार्य के पूर्ववर्ती थे (दे० भास्कराचार्य)। इन्होंने 'महाआर्यसिद्धान्त' नामक ज्योतिषशास्त्र के अत्यन्त प्रौढ़ अन्य की रचना की है। यह ग्रन्थ १८ अध्यायों में विभक्त है जिसमें ६२५ आर्या छन्द हैं। भास्कराचार्य के 'सिखान्तशिरोमणि' में इनके मत का उल्लेख प्राप्त होता है ।