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कल्हण]
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१२९६ से १३१६ ई. तक था। इस प्रकार विश्वनाथ का समय १३०० ई० से १३५० के मध्य किसी समय हो सकता है। ये कवि, नाटककार एवं सफल आचार्य थे। इन्होंने राघवविलास (संस्कृत महाकाव्य), कुवलयाश्वचरित (प्राकृत काव्य), प्रभावतीपरिणय एवं चन्द्रकला ( नाटिका), प्रशस्तिरत्नावली, काव्यप्रकाशदर्पण ( काव्यप्रकाश को टीका) एवं 'साहित्यदर्पण' नामक पुस्तकों का प्रणयन किया था। इनकी कीर्ति का स्तम्भ एकमात्र 'साहित्य-दर्पण' ही है जिसमें दस परिच्छेद है और काव्यशास्त्र के सभी विषयों एवं नाट्यशास्त्र का विवेचन है। विषय-प्रतिपादन की दृष्टि से यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है और इसी कारण इसे अधिक लोकप्रियता प्राप्त हुई है। काव्य के लक्षण, भेद, प्रयोजन, शब्दशक्ति, रस, ध्वनि, रीति, गुण, दोष, अलंकार एवं काव्य के भेद-दृश्य एवं श्रव्य तथा नायक-नायिका-भेद का इसमें विस्तृत विवेचन है। विश्वनाथ रसवादी आचार्य हैं । इन्होंने रस को ही काव्य की आत्मा माना है और उसका स्वतन्त्र रूप से विवेचन किया है; मम्मट की भांति उसे ध्वनि का अंग नहीं माना।
आधारग्रन्थ-भारतीय साहित्यशास्त्र भाग १--आ० बलदेव उपाध्याय ।
कल्हण-ये संस्कृत के सर्वश्रेष्ठ ऐतिहासिक महाकाव्यकार हैं। इन्होंने 'राजतरंगिणी' नामक सुप्रसिद्ध काव्य की रचना की है। कल्हण काश्मीर निवासी थे। इनका जन्म आल्पवंशीय ब्राह्मण कुल में हुआ था। प्राचीन ग्रन्थों में पहन का पुछ भी विवरण प्राप्त नहीं होता, उन्होंने अपने सम्बन्ध में जो कुछ अंकित किया है वही उनके जीवनवृत्त का आधार है। 'राजतरंगिणी' के प्रत्येक तरंग की समाप्ति में 'इति काश्मीरिक महामात्य श्रीचम्पकप्रमुसूनोः कल्हणस्यकृती राजतरङ्गिण्या..' यह वाक्य अंकित है। इससे ज्ञात होता है कि इनके पिता का नाम चम्पक था और वे काश्मीरनरेश हर्ष के महामात्य थे। ये राजा हर्ष के विश्वासपात्र अधिकारी होने के कारण उनके हर्ष-चोक, सुख-दुःख तथा उन्नति-अवनति में समभाव से एकनिष्ठा के साथ सेवा करते थे। काश्मीरनरेश हर्ष का शासनकाल १००९-११०१ ६० तक था । राजा की हत्या किये जाने के बाद इन्होंने राजनीति से संन्यास ले लिया था। चम्पक के नाम का कल्हण ने अत्यन्त मादर के साथ उल्लेख किया है जिससे उनके पिता होने में किसी प्रकार का सन्देह नहीं रह गया है । इन्होंने यह भी उल्लेख किया है कि चम्पक प्रति वर्ष अपनी अजित सम्पत्ति का नन्दिक्षेत्र में सात दिनों तक व्ययकर उसका सदुपयोग किया करते थे
नन्दिक्षेत्रे व्ययीकृत्व प्रत्यब्दं सप्तवासरान् । चम्पकः सफलां चक्रे सर्वकालाजितां श्रियम् ॥ राज०७।९५४
नन्दिक्षेत्रे स तत्रायः प्रणीतश्चम्पकादिभिः । वही ८।२३६५ पाहण ने चम्पक के अनुज कनक का भी उल्लेख किया है जो हर्ष के कृपापात्रों तथा विश्वासी अनुजीवियों में से थे। कहा जाता है कि इनकी मानबिया से प्रसन्न होकर राजा ने इन्हें एक लाख सुवर्ण मुद्रा पुरस्कार के रूप में दी थी। राज० ७१११७, १११८ कल्हण ने परिहारपुर को कनक का निवास स्थान कहा है तथा यह भी उल्लेख किया है कि जब राजा हर्ष बुद्ध की प्रतिमाओं का विध्वंस कर रहे थे तब कनक ने अपने जन्म-स्थान की बुद्ध की प्रतिमा की रक्षा की थी। [दे. राज