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नाट्यशास्त्र ]
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[ नाट्यशास्त्र
छब्बीसवें में विकृताभिनय वर्णित हैं । सत्ताईसवें अध्याय में अभिनय की सिद्धि एवं उनके विघ्नों का वर्णन है तथा अट्ठाईसवें से तेतीसवें अध्याय तक संगीतशास्त्रं का वर्णन है । चौतीसवें अध्याय में पात्र की प्रकृति का विचार और पैंतीसवें में पारिपाश्विक एवं विदूषक का वर्णन है । छत्तीसवें या अन्तिम अध्याय में नाट्य के भूतल पर आने का वर्णन है । 'नाट्यशास्त्र' का प्रथम प्रकाशन काव्यमाला संस्कृत सीरीज के निर्णय सागर प्रेस से १८९४ ई० पे हुआ था । इसमें छह हजार श्लोक हैं । गायकवाड़ ओरियण्टल सीरीज बड़ौदा से 'अभिनय भारती' सहित 'नाट्यशास्त्र' का प्रकाशन चार खण्डों में हुआ है । चौखम्बा संस्कृत सीरीज से भी पं० बटुकनाथ शर्मा एवं पं० बलदेव उपाध्याय के संपादकत्व में 'नाट्यशास्त्र' का प्रकाशन १९३५ ई० में हुआ था जिसे अपेक्षाकृत अधिक शुद्ध माना जाता है । ' नाट्यशास्त्र' का आंग्लानुवाद डॉ० मनमोहन घोष ने किया है और १ से ७ अध्याय तक के दो हिन्दी अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं । प्रथम के अनुवादक डॉ० रघुवंश ( मोतीलाल बनारसीदास ) एवं द्वितीय के अनुवादक पं० बाबूलाल शुक्ल हैं ( चौखम्बा प्रकाशन ) ।
'नाट्यशास्त्र' के तीन रूप हैं— सूत्र, भाष्य एवं कारिका । आ० बलदेव उपाध्याय का कहना है कि "ऐसा जान पड़ता है कि मूल ग्रन्थ सूत्रात्मक था जिसका रूप ६ और ७ वें अध्याय में आज भी देखने को मिलता है । तदनन्तर भाष्य की रचना हुई जिसमें भरत के सूत्रों का अभिप्राय उदाहरण देकर स्पष्ट समझाया गया है । तीसरा तथा अन्तिम स्तर कारिकाओं का है जिनमें नाटकीय विषयों का बड़ा ही विपुल तथा विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया गया है ।" भारतीय साहित्यशास्त्र भाग १ पृ० २७ प्रथम संस्करण ।
'नाट्यशास्त' में अधिकतर अनुष्टुप् छन्द का प्रयोग है पर कहीं-कहीं आर्या छन्द भी प्रयुक्त हुए हैं । ६ ठें एवं सातवें अध्याय में कई सूत्र एवं गद्यात्मक व्याख्यान भी प्राप्त होते हैं । कहा जाता है कि 'नाट्यशास्त्र' में अनेक ऐसे श्लोक हैं ( जिनकी संख्या अधिक है ) जिनकी रचना भरत से पूर्व हुई थी और भरत ने अपने विचार की पुष्टि के लिए उन्हें उद्धृत किया था । इन श्लोकों को 'आनुवंश्य' श्लोक की संज्ञा दी गयी है । अभिनवगुप्त ने भी इस कथन का समर्थन किया है
ता ता हयार्या एकप्रघट्टकतया पूर्वाचार्यलक्षणत्वेन पठिताः, मुनिना तु सुखसंग्रहाय यथास्थानं निवेशिताः ॥ अभिनवभारती, अध्याय ६ ॥
'नाट्यशास्त्र' के वर्तमान रूप के सम्बन्ध में विद्वानों का कहना है कि इसकी रचना अनेक व्यक्तियों द्वारा हुई है तथा इसका यह इसका यह रूप 'अनेक शताब्दियों के दीघंव्यापार का परिणत फल' है । इस सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता | 'नाट्यशास्त्र' का रचना काल एवं रचयिता आदि के सम्बन्ध में पुनः गाढानुशीलन करने की आवश्यकता है । 'नाट्यशास्त्र' के अनेक टीकाकार हो चुके हैं पर सम्प्रति एकमात्र भाष्य अभिनवगुप्त रचित 'अभिनवभारती' ही उपलब्ध है ।