________________
जयदेव]
( १८५)
[जयदेव
आकर पूर्णतः मिल गयी हैं। इन्होंने विभिन्न शृंगारिक परिस्थितियों की कल्पना कर राधा को विभिन्न प्रकार की नायिकाओं के रूप में चित्रित किया हैउत्कण्ठिता-सखि हे केशीमथनमुदारम् ।
रमय मया सह मदनमनोरथ भावितया सविकारम् ॥ ५॥ प्रोषितपतिका-निन्दतिचन्दनमिन्दुकिरणमनुविन्दति खेदमधीरम् ।
व्यालनिलयमिलनेन गरलमिव कलयति मलयासमीरम् । माधव मनसिजविशिखभयादिव भावनयात्वयिलीना।
सा विरहे तव दीना ।। गीतगोविन्द ६ ॥ "हे सखि । केशी के संहारक उदार कृष्ण से मेरा मिलन करा दो। मैं कामपीड़ित हूँ"।
"हे माधव ! वह तुम्हारे विरह में अत्यन्त दीन हो गयी है, चन्दन और चन्दकिरणों की निन्दा करती है। मलयानिल को सर्प-निलय के संपर्क के कारण गरल तुल्य समझती है और काम के बाणों से भयभीत सी भावना से तुम में लीन है।"
__'गीतगोविन्द' में गौडी एवं वैदर्भी रीति का अपूर्व समन्वय दिखाई पड़ता है तथा समास बहुल पदों का खुल कर प्रयोग किया गया है। कहीं-कहीं तो गीत की एक पंक्ति में एक ही समस्त पद मिलता है
ललित-लवंगलता-परिशीलन-कोमल-मलय-समीरे ।
मधुकर-निकर-करम्बित-कोकिल-कूजित-कुन्जकुटीरे ।। सम्पूर्ण रचना में एक भी ऐसा पद नहीं मिलता जो भावनानुरूप कोमल न हो। इसमें कवि ने संस्कृत के वणिकवृत्त तथा संगीत के मात्रिक पदों का विचित्र समन्वय किया है । प्रत्येक सगं के प्रारम्भ में एक या अधिक पदों में राधा और कृष्ण की चेष्टादि का वर्णन किया गया है, तत्पश्चात् किसी राग में आबद्ध गेय पद का प्रयोग है । प्रत्येक सगं में पदों की संख्या में भिन्नता दिखाई पड़ती है। कहीं तो एक-एक या दो-दो पद हैं तो कहीं चार-चार पदों का भी समावेश किया गया है। पदों के बीच तथा सर्ग के अन्त में भी वणिक वृत्तों का नियोजन किया गया है। विषय की दृष्टि से पदों में अन्तर पड़ता है। कुछ तो कवि की स्वयं को उक्तियों हैं और कतिपय पद कृष्ण, राधा या दूती की उक्तियों के रूप में कथित हैं।
'गीतगोविन्द' के स्वरूप-विधान को लेकर विद्वानों में पर्याप्त मत-भेद पाया जाता है । विलियम जोन्स ने इसे पशुचारण नाटक (पैस्टोरल ड्रामा ) कहा है तो लासेन संगीतकाव्यात्मक रूपक कहते हैं ( लिरिक ड्रामा)। पिशेल के मतानुसार 'गीतगोविन्द' मधुररूपक ( मेलोड्रामा) है तो वानश्रोउर इसे परिष्कृत यात्रा की श्रेणी में रखते हैं । सिलवा लेवी ने इसे गीत और रूपक का मध्यवर्ती काव्य माना है । जयदेव ने प्रबन्धकाव्य लिखने के उद्देश्य से इसे सर्गों में विभक्त किया था उनका विचार इसे नाटकीय रूप देने का नहीं था। वस्तुतः यह प्रबन्धात्मक गीतिकाव्य है जिसमें प्रबन्ध एवं गीति दोनों के ही तत्व अनुस्यूत हो गए हैं। डॉ. कीथ का कहना है कि "इस प्रकार