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रामायण]
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[रामायण.
या बुद्ध का नाम भी नहीं है, अतः इसका वर्तमान रूप बौद्धधर्म के जन्म के पूर्व प्रचलित हो चुका होगा।
वर्तमान समय में 'रामायण' के तीन संस्करण प्राप्त होते हैं और तीनों में पाठभेद भी दिखाई पड़ता है। उत्तरी भारत, बंगाल एवं काश्मीर से 'रामायण' के तीन संस्करण उपलब्ध हैं जिनमें परस्पर श्लोकों का ही अन्तर नहीं है अपितु कहीं-कहीं तो इनके सगं के सगं भिन्न हैं। 'वाल्मीकि रामायण' की टीकाओं की संख्या डॉ० औफेक्ट के अनुसार ३० है।
१-रामानुज की 'रामानुजीयम्' व्याख्या का समय १४०० ई० के आसपास है। वे वाधूलगोत्रीय वरदाचार्य के पुत्र थे। इस टीका का उल्लेख वैद्यनाथ दीक्षित तथा गोविन्दराज ने किया है। २-वेंकटकृष्णाध्वरी या फेंकटेश यज्वा लिखित 'सर्वार्थसार' नामक टीका का समय १४७५ ई. के लगभग है । ३–वैद्यनाथ दीक्षितइनकी टीका का नाम 'रामायणदीपिका' है और समय १५०० ई० के आसपास है । ४-ईश्वर दीक्षित ने दो टीकाएँ लिखी हैं जिन्हें 'बृहदविवरण' एवं 'लघुविवरण' कहा जाता है। प्रथम का रचनाकाल १५१८ ई० एवं द्वितीय का १५२५ ई० के आसपास है। ५-तीर्थीय-इनका नाम महेश्वर तीर्थ तथा टीका का नाम 'रामायणतत्त्व. दीपिका' है। ६-रामायणभूषण-इस टीका के रचयिता गोविन्दराज थे। ७अहोबिल आत्रेय-इनकी टीका का नाम 'वाल्मीकिहृदय' है। इनका समय १६२५ ई० के लगभग है। -कतकयोगिन्द्र-इन्होंने 'अमृतकतक' नामक टीका लिखी है । समय १६५० ई० के निकट । ९-रामायणतिलक-यह 'रामायण' की सर्वाधिक लोकप्रिय टीका है। इसके रचयिता प्रसिद्ध वैयाकरण नागेश थे। निर्णयसागर प्रेस से प्रकाशित । १०-रामायण शिरोमणि-इसके रचयिता वंशीधर तथा शिवसहाय हैं । रचनाकाल १८५३ ई० । ११–मनोहरा-इसके रचयिता बंगदेशीय श्री लोकनाथ चक्रवर्ती हैं । १२-धमीकृतम-यह रामायण की आलोचनात्मक व्याख्या है । इसके रचयिता का नाम त्र्यम्बकमखी तथा रचनाकाल १७ वीं शताब्दी का उत्तराध है ।
'वाल्मीकि रामायण' काव्यमात्र न होकर दो भिन्न संस्कृतियों एवं सभ्यताओं के संघर्ष की कहानी है। आदि कवि को सौन्दर्य-चेतना कवित्वमयी है। रामायण के प्रकृति-चित्रण में कवि की सौन्दर्य-संवेदना का प्रौढ़ रूप मिलता है। यदि इसमें प्रकृति के अधिकांश चित्र विवरणात्मक है तथापि उसमें कवि की चित्रणकला का अपूर्व कौशल दिखाई पड़ता है। विवरणात्मक स्थलों में ही कवि ने अधिक चित्र-विधान किये हैं। रामायज में प्रकृति-चित्रण प्रचुर मात्रा में है जिसमें निहित कवि की दृष्टि प्रकृति कवि का रूप प्रस्तुत करती है। उदाहरण के लिए गङ्गा का वर्णन लिया जा सकता है-जलाघाताट्टहासोग्रां फेननिर्मलहासिनीम् । क्वचिद् वेणीकृतजलो क्वचिदावतंशोभिताम् ॥ क्वचित्स्तिमितगम्भीरां क्वचिद् वेगसमाकुक्वचिद्गम्भीरनिर्घोषां क्वचिद् भैरव निःस्वनाम् ॥ अयोध्याकाण्ड ५०।१६।१७ । "जल के आपात से गंगाजी उग्र अट्टहास-सा करती हैं, निर्मल फेनों में