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मेषविजयगणि]
(४३५)
[ मेधाविरुद्र
प्रकाशिका, चामराजकल्याणचम्पू, चामराजराज्याभिषेक-चरित्र, कृष्णराज्याभ्युदय, भैमीपरिणय ( नाटक ), कुम्भाभिषेकचम्पू। इन्हें अनेक संस्थाओं एवं व्यक्तियों के द्वारा कविरत्न, कविकुलालंकार, कविशिरोमणि एवं कविकुलावतंस प्रभृति उपाधियां प्राप्त हुई थीं। 'मेघप्रतिसन्देश' की रचना १९२३ ई. के आसपास हुई थी। इसमें दो सगं हैं जिनमें ६८ +९६ श्लोक ( १६४) हैं और एकमात्र मन्दाक्रान्ता छन्द का ही प्रयोग हमा है। 'मेघप्रतिसन्देश' में कवि ने मेघसन्देश की कथा का पल्लवन किया है। इसके प्रथम सर्ग में यक्षी के प्रतिसन्देश का वर्णन एवं द्वितीय सर्ग में अलका से लेकर रामेश्वर तथा धनुष्कोटि तक के मार्ग का वर्णन है। यक्ष का सन्देश सुनकर यक्षी प्रसन्न होती है और विरह-व्यथा के कारण अशक्त होने पर भी किसी प्रकार मेघ से बार्तालाप करती है। वह मेघ को भगवान् का वरदान मानकर उसकी उदारता एवं करुणा की प्रशंसा करती हुई यक्ष के सन्देश का उत्तर देती है। प्रतिसन्देश में यक्ष के सद्गुणों का कथन कर अपनी विरह-दशा एवं घर की दुरवस्था का वर्णन कर शिव जी की कृपा से शाप के शान्त होने की सूचना देती है। अन्त में वह यक्ष को शोघ्र ही लौट आने की प्रार्थना करती है। मेघ का यक्ष के प्रति वचन यह है-साभिज्ञानप्रहितकुशलस्तद्वषोभिर्ममापि प्रातः कुन्दप्रसवशिथिलं जीवितं धारयेथाः ॥ २॥५२ ।
आधारग्रन्थ-संस्कृत के सन्देश-काव्य-डॉ० रामकुमार आचार्य ।
मेघविजयगणि-ज्योतिषशास्त्र के आचार्य । ज्योतिषशास्त्र के महान् आचार्य मेघविजयगणि का समय वि० सं० १७३७ के लगभग है। इन्होंने 'मेघमहोदय' या वर्षप्रबोध', 'उदयदीपिका', 'रमलशास्त्र' एवं 'हस्तसंजीवन' प्रभृति ग्रन्थों की रचना की है। 'वर्षप्रबोध' १३ अधिकारों तथा ३५ प्रकरणों में विभक्त हैं जिसमें उत्पात, सूर्य तथा चन्द्रग्रहण का फल, प्रत्येक माह का वायु-विचार, संवत्सर का फल, ग्रहों का राशियों पर उदयास्त एवं वक्री होने का फल, अयन-मास-पक्ष-विचार, संक्रान्तिफल, वर्ष के राजा एवं मन्त्री, धान्येश, रसेश का वर्णन, आय-व्यक्त-विचार, सर्वतोभद्रचक्र तथा शकुन प्रभृति विषय वर्णित हैं। 'हस्तसंजीवन' तीन अधिकारों में विभक्त है जिन्हें दर्शनाधिकार, स्पर्शनाधिकार तयाँ विमर्शनाधिकार कहा गया है। दर्शनाधिकार में हाथ देखने की विधि तथा हस्तरेखाओं के फलाफल का विचार है। स्पर्शनाधिकार में हाथ के स्पर्शमात्र से ही फलाफल का निरूपण है तथा विमर्शनाधिकार में रेखाओं के आधार पर जीवन के आवश्यक प्रश्नों पर विचार किया गया है। यह सामुद्रिकशास्त्र का अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है।
माधरगन्य-भारतीय ज्योतिष-डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री।
मेधाविरुद्र-काव्यशास्त्र के आचार्य। इनका दूसरा नाम मेधावी भी है । इनका कोई ग्रंथ उपलब्ध नहीं है, किन्तु इनके विचार भामह, रुद्रट, नमिसाधु एवं राजशेखर आदि के अंथों में प्राप्त होते हैं। मेधाविना भरत एवं भामह के बीच पड़ने वाले समय के सुदीर्घ व्यधान में उत्पन्न हुए होंगे। इनका समय निश्चित नहीं है। उपमा के सात दोषों का विवेचन करते हुए भामह ने इनके मत का उल्लेख किया है। इनके अनुसार हीनता, असम्भव, लिंगमेद, बचनभेद विपर्यय, उपमानाधिक्य एवं उपमानासारख्य