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भारवि]
[ भारवि
"इसलिए ५०० ई० की अपेक्षा ५५० ई० के लगभग ही उनके समय को मानना अधिक उपयुक्तं प्रतीत होता है।" संस्कृत साहित्य का इतिहास-कीय पृ० १३३ । ऐहोल के शिलालेख का रचनाकाल इस प्रकार है-पञ्चाशत्सु कली काले षट्सु पन्चशतासु च । समासु समतीतासु शकानामपि भूभुजाम् ।। गंगनरेश दुविनीत का साक्ष्य दानपत्र में इस प्रकार अंकित है-शब्दावतारकारेण देवभारती-निबद्धवट्ठकथेन किरातार्जुनीयपञ्चदशसगंटीकाकारेण दुबिनीतनामधेयेन । राजशेखरकृत 'अवन्तीसुन्दरीकथा' के अनुसार भारवि परम शैव थे। 'किरातार्जुनीय' की कथा से भी यह बात सिद्ध होती है। यतः कोशिककुमारो ( दामोदरः ) महाशैवं महाप्रभावं गवां प्रभवं प्रदीप्रभासं भारविं रविमिवेन्दुरनुरुध्य दशं इव पुण्य कर्मणि विष्णुवर्धनास्ये राजसूनौ प्रणयमन्वबध्नात् । __ राजशेखर ने इस आसय का उल्लेख किया है कि कालिदास की तरह उज्जयिनी में भारवि की भी परीक्षा हुई थी-भ्रूयते चोज्जयिन्या काव्यकार परीक्षा-इह-कालिदासमेष्ठावग्रामररूपसूरभारवयः।हरिश्चन्द्रचन्द्रगुप्तो परीभिताविह विशालायाम् । कहा जाता है कि रसिकों ने भारवि के काव्य पर मुग्ध होकर इन्हें 'आत्रपत्रभारवि' की उपाधि दी थी। किरात के निम्नांकित श्लोक में इसका प्रमाण प्राप्त होता है-उत्फुल्लस्थलनलिनीवनादमुष्मादुधूतः सरसिजसम्भवः परागः । वात्याभिवियति विवतितः समन्तादाधत्ते कनकमयातपत्रलक्ष्मीम् ॥ किरात ५३९ । "स्थल कमलों से वनप्रदेश भरा हुआ है, इनसे भी पराग झर रहे हैं । वायु झोंके से बह रही है। वह पराग को उड़ा कर माकाश में फैला रही है। इस पर कमल का पराग स्वर्णमय छत्र की शोभा धारण कर रहा है ।" भारवि के सम्बन्ध में सुभाषित संग्रहों में कतिपय प्रशस्तियां प्राप्त होती हैं, उनका विवरण इस प्रकार है-सुभाषितवली २।४। १-लक्षौबन्धकितं वध्वा भारवीयं सुभाषितम् । प्रक्रान्तपुत्रहत्याचं निशिचं मापं न्यवारयत ॥ हरिहर । २-जनितार्जुनतेजस्कं तमीश्वरमुपाश्रिता। राकेत भारवे ति कृतिः कुवलयप्रिया ॥ सोमेश्वर (की० को. १।४) । ३-विमर्दै व्यक्तसौरभ्या भारती भारवेः कवेः । धत्ते बकुलमालेव विदग्धानां चमक्रियाम् ॥ अज्ञात । ४-प्रदेशकृत्यापि महान्तमर्थ प्रदर्शयन्ती रसमादधाना । सा भारवेः सत्पथदीपिकेव रम्या कृतिः कैरिव नोपजीव्या ।। अज्ञात । ५-भारवेरथंगौरवम्मल्लिनाथ । ६-नारिकेलफलसम्मितं वचो भारवे:-वही। ७-वृतच्यत्रस्य सा कापि वंशस्थस्य विचित्रता। प्रतिभा भारवेयेन 'सच्छायेनाधिकीकृता ॥ क्षेमेन्द्र सुवृत्ततिलक । भारवि ने एकमात्र महाकाव्य 'किरातार्जुनीय' की रचना की है जिसमें 'महाभारत' ( वनपर्व ) के आधार पर अर्जुन एवं किरात वेशधारी शिव के युद्ध का वर्णन है । इसमें १८ सगं हैं तथा तत्कालीन प्रचलित महाकाव्य के शास्त्रीय स्वरूप का पूर्ण निदर्शन है। (विशेष विवरण के लिए दे० किरातार्जुनीय)। माल्लीनाथ ने किरातार्जुनीय का परिचय इस प्रकार दिया है-नेता मध्यमपाण्डवो भगवतो नारायणस्यांशजस्तस्योत्कर्षकृतेऽनुवयंचरितो दिव्यः किरातः पुनः । शृङ्गारादिरसोऽयमत्र विजयी वीरप्रधानोरसः शैलाद्यानि च वर्णितानि बहुशो दिव्यास्त्रलाभः फलम् ।। भारवि ने महाकाव्य के लक्षणानुसार इसमें वस्तुभ्यंजना के अन्तर्गत बीच-बीच में षड्ऋतु, पर्वत, सूर्यास्त, जलक्रीड़ा आदि का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। चतुर्थ सर्ग में शरदऋतु का वर्णन, पंचम में हिमालय