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कविराज विश्वनाथ]
[कविराज विश्वनाथ
लक्ष्मणसेन के दरबार के पांच रत्नों का भी उल्लेख प्राप्त होता है
गोवर्धनश्च शरणो जयदेव उमापतिः ।
कविराजश्च रत्नानि समिती लक्ष्मणस्य तु ।। पवनदूत की कथा इस प्रकार है--गौड़देश के नरेश लक्ष्मणसेन दक्षिण दिग्विजय करते हुए मलयाचल तक पहुंचते हैं। वहाँ कनक नगरी में रहने वाली कुवलयवती नामक अप्सरा उनसे प्रेम करने लगती है। राजा लक्ष्मणसेन के राजधानी लौट आने पर कुवलयवती उनके विरह में तड़पने लगती है। वसन्त ऋतु के आगमन पर वह वसन्तवायु को दूत बनाकर अपना विरह-सन्देश भिजवाती है। कवि ने मलय पर्वत से बंगाल तक के मार्ग का अत्यन्त ही मनोरम वर्णन किया है जो कवित्वमय एवं आकर्षक है तथा राजा लक्ष्मणसेन की राजधानी विजयपुर का वर्णन करते हुए कुवलयवती की वियोगावस्था का करुण रूप अंकित किया है । अन्त में कुवलयवती का सन्देश है। . पवनदूत में मन्दाक्रान्ता छन्द का ही प्रयोग है और कुल १०४ श्लोक । अन्तिम चार श्लोकों में कवि ने अपना परिचय दिया है। इसमें मेघदूत की तरह पूर्व भाग एवं उत्तर भाग नहीं हैं। मेघदूत का अनुकरण करते हुए भी कवि ने नूतन उद्भावनाएं की हैं ! माल्यवान् पर्वत से प्रवाहित होने वाले जल प्रपातों की कल्पना राम के अश्रु के रूप में की गयी है
तत्राद्यापि प्रतिझरजलैजराः प्रस्थभागाः ।
सीताभः पृथुतरशुचः सचयनस्यश्रुपातान् । १८ ।। "माधुर्य-व्यंजक वर्गों के साथ ललित भाषा में क्लिष्ट समासों का परिहार करते हुए वैदर्भी रीति में यह काव्य लिखा गया है।" संस्कृत के सन्देशकाव्य पृ० २४४ । सर्वप्रथम म० म० हरप्रसाद शास्त्री ने इसके अस्तित्व का विवरण स्वरचित संस्कृत हस्तलिखित पोथियों के विवरण सम्बन्धी ग्रन्थ के प्रथम भाग में दिया था। तत्पश्चात् १९०५ ई० में श्रीमनमोहन घोष ने इसका एक संस्करण प्रकाशित किया किन्तु वह एक ही हस्तलेख पर आवृत होने के कारण भ्रष्ट पाठों से युक्त था। अभी हाल में ही कलकत्ते से इसका शुद्ध संस्करण प्रकाशित हुआ है।
कविराज विश्वनाथ "इन्होंने 'साहित्य-दर्पण' नामक अत्यन्त लोकप्रिय काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ का प्रणयन किया है। [दे० साहित्य-दर्पण ] इनका जन्म उत्कल के प्रतिष्ठित पण्डित-कुल में हुआ था। इनके पिता का नाम चन्द्रशेखर था जिन्होंने 'पुष्पमाला' एवं 'भाषार्णव' नामक ग्रन्थों का प्रणयन किया था जिनका उल्लेख 'साहित्य-दर्पण' में है। इनके पिता विद्वान, कवि एवं सान्धिविग्रहिक थे। नारायण नामक विद्वान् इनके पितामह या वृद्ध पितामह थे। इनका समय १२०० ई० से लेकर १३५० के मध्य है। 'साहित्य-दर्पण' में एक अल्लावदीन नृपति का वर्णन है जो सन्धि के समय सर्वस्व-हरण के लिए विख्यात था
सन्धो सर्वस्वहरणं विग्रहे प्राणनिग्रहः । । ।
अह्नावदीननृपतौ न सन्धि च विग्रहः ॥ ४४ यह श्लोक दिल्ली के बादशाह अलाउदीन खिलजी से ही सम्बद है जिसका समय