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पाश्र्वाभ्युदय ]
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[पुराण
काव्यमाला बम्बई से १९२६ ई० में हुआ था। इसकी भाषा मधुर अनुप्रासमयी एवं प्रसादगुण-युक्त है तथा भावानुरूप भाषा का सुन्दर चित्र उपस्थित किया गया है। .. आधारग्रन्थ-चम्पूकाव्य का आलोचनात्मक एवं ऐतिहासिक विवेचन-डॉ. छबिनाथ त्रिपाठी।
पाभ्युिदय-यह संस्कृत का सन्देश-काव्य है जिसके रचयिता हैं जिनसेनाचार्य । इनका समय वि० का नवम शतक है। इस काव्य की रचना राष्ट्रकूटवंशीय राजा अमोघवर्ष प्रथम के शासन काल में हुई थी। राजा अमोघवर्ष जिनसेन को अति सम्मान देते थे। जिनसेन के गुरु का नाम वीरसेन था। काव्य के अन्त में कवि ने इस तथ्य की स्वीकारोक्ति की है-इतिविरचितमेतत्काव्यमावेष्ट्य मेघं बहुगुणमपदोषं कालिदासस्य काव्यम् । मलिनितपरकाव्यं तिष्ठतादाशशांकम् भुवनमवतु देवः सर्वदा मोघवर्षः ॥ श्री वीरसेनभुनिपाद पयोजभुंगः श्रीमान्भूद्विनयसेनमुनिगरीयान् । तच्चोदितेन जिनसेन मुनीश्वरेण काव्यं व्यधायि परिवेष्टित मेघदूतम् ॥ इस काव्य की रचना मेघदूत के पदों को ग्रहण कर समस्यापूत्ति के रूप में की गयी है। कवि ने (मन्दाक्रान्ता छन्द की ) दो पंक्तियां मेघदूत की ली हैं और दो पंक्तियां अपनी ओर से लिखी हैं । यह काव्य चार सगों में विभक्त है जिसमें क्रमशः ११८, ११८, ५७ एवं ७१ श्लोक हैं। चतुर्थ सर्ग के अन्त के पांच श्लोक मालिनी छन्द में निर्मित हैं और छठां श्लोक वसन्ततिलका वृत्त में है । शेष सभी छन्द मन्दाक्रान्ता वृत में हैं। इसमें कवि ने पाश्वनाथ का ( जैन तीर्थकर ) का चरित्र वर्णित किया है पर समस्यापूर्ति के कारण कथानक शिथिल हो गया है। समस्यापूर्ति के रूप में लिखित होने पर भी यह काव्य कलात्मक वैभव एवं भावसौन्दयं की दृष्टि से उच्चकोटि का है। यत्र-तत्र कालिदास के मूलभावों को सुन्दर ढंग से पल्लवित किया गया है। जैजैणैिः कुसुम-धनुषो दूरपातैरमोधैमर्माविद्विभ दृढपरिचितभ्रूधनुर्यष्टि मुक्तेः। ,
आधारग्रन्थ-संस्कृत के सन्देशकाव्य-डॉ० रामकुमार आचार्य । पितामहस्मृति-इस स्मृति के रचयिता पितामह हैं। विश्वरूप ने पितामह को धर्मवक्ताओं में स्थान दिया है तथा 'पितामहस्मृति' के उद्धरण 'मिताक्षरा' में भी प्राप्त होते हैं । पितामह ने बृहस्पति का उल्लेख किया है, अतः इनका समय ४०० ई० के आसपास पड़ता है। (डॉ. काणे के अनुसार ) 'पितामहस्मृति' में वेद, वेदाङ्ग, मीमांसा, स्मृति, पुराण एवं न्याय को भी धर्मशास्त्र में परिगणित किया गया है। 'स्मृतिचन्द्रिका' में 'पितामहस्मृति' के व्यवहार-विषयक २२ श्लोक प्राप्त होते हैं । पितामह ने न्यायालय में आठ करणों की आवश्यकता पर बल दिया है-लिपिक, गणक, शास्त्र, साध्यपाल, सभासद, सोना, अग्नि तथा जल । "पितामहस्मृति' में व्यवहार का विशेषरूप से वर्णन किया गया है।
आधारग्रन्थ-धर्मशास्त्र का इतिहास (भाग १)-डॉ० पी० काणे (हिन्दी अनुवाद)।
पुराण-संस्कृत साहित्य के ऐसे ग्रन्थ जिनमें इतिहास, काव्य एवं पुरातत्व का संमिश्रण है तथा उनकी संख्या १८ मानी गयी है। पुराण भारतीय संस्कृति की आधारशिला हैं अथवा इन्हें भारतीय संस्कृति का मेरुदण्ड कहा जा सकता है । उनमें भारतीय सृष्टिक्रम-व्यवस्था, प्रलय, वंशानुचरित के अतिरिक्त प्राचीन भारतीय भूगोल,