________________
शब्द एवं व्याख्यातो यथैवास्माभिनिरूपितः । पृ०-१३ अभिनवगुप्त, हय्यक एवं हेमचन्द्र भी अपने ग्रन्थों में इसका संकेत करते हैं__भामहोक्तं 'शब्दश्छन्दोभिधानार्थः' इत्यभिधानस्य शब्दानेदं व्याख्यातुं भट्टोनटो कभाषे । ध्वन्यालोकलोचन ( निर्णयसायर )पृ०.१०
.. कुमारसम्भव-इसका उल्लेख प्रतिहारेन्दुराज की 'विवृत्ति' में है अनेन अन्यकता स्वोपरचितकुमारसम्भवैकदेशोचोदाहरणत्वेन. उपन्यस्तः ।। पृ० १३. इसमें महाकवि कालिदास के 'कुमारसम्भव' के आधार पर उक्त घटना का वर्णन है। कुमारसम्भव' के कई श्लोक 'काव्यालंकारसारसंग्रह' में उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किये गये हैं। .. काव्यालंकारसारसंग्रह अलंकारविषयक प्रसिद्ध ग्रन्थ है जिसमें :४१ अलंकारों का विवेचन है । इसमें १.०० श्लोक 'कुमारसम्भव' से उदाहरणस्वरूप उपस्थित किये गये हैं। उद्भट के अलंकार-निरूपण पर भामह का अत्यधिक प्रभाव है। इन्होंने अनेक अलंकारों के लक्षण भामह से ही ग्रहण किये हैं। आक्षेप, विभावना, अतिशयोक्ति, यथासंख्य, पर्यायोक्त, अपद्धति, विरोध, अप्रस्तुतप्रशंसा, सहोक्ति, ससन्देह एवं अनन्क्यः तथा अनुप्रास, उत्प्रेक्षा, रसवत् एवं भाविक के लक्षण भामह के ही आधार पर निर्मित किये हैं । उद्भट भामह की भांति अलंकारवादी आचार्य हैं। इन्होंने भामह द्वास विवेचितः ३.९ अलंकारों में से यमक, उत्प्रेक्षावयव एवं उपमा-रूपक को स्वीकार नहीं किया तथा चार नवीन अलंकारों की उद्भावना की पुनरुक्तिवदाभास, संकर, काव्यलिंग, एवं दृष्टान्त । भामह से प्रभावित होते हुए भी इन्होंने अनेक स्थलों पर नवीन तथ्य भी प्रकट किये हैं। जैसे, भामह ने रूपक एवं अनुप्रास के दो-दो भेद किये थे, किन्तु उद्धट. ने रूपक के तीन प्रकार एवं अनुप्रास के चार भेद किये । इन्होंने परूषा, ग्राम्या एवं उपनागरिका वृत्तियों का वर्णन किया है, जबकि भामह ने इनका उल्लेख भी नहीं किया था। इन्होंने सर्वप्रथम अलंकारों के वर्गीकरण करने का प्रयास किया है धोर४१ अलंकारों के छः वर्ग किये हैं । इन्होंने श्लेषालंकार के सम्बन्ध में नवीन व्यवस्था यह दी कि जहाँ श्लेष अन्य अलंकारों के साथ होगा. वहां उसकी ही प्रधानत्म होगी । इनके अनुसार शब्दश्लेख एवं अर्थश्लेष के रूप में -श्लेष के दो प्रकार होते हैं । इनके इन दोनों मतों का खण्डन मम्मट ने 'काव्यप्रकाश के नवम उल्लास में किया है। राजानक रुय्यक ने बतलाया है कि उद्भट ने अलंकार एवं गुण को समान श्रेणी का माना हैउद्भटादिभिस्तु गुणालंकाराणां प्रायशः साम्यमेवसूचितम् । ........ .
उद्भट के काव्यशास्त्रीय विचार अनेकानेक ग्रन्थों में प्राप्त होते हैं जिससे परवर्ती आचार्यों पर इनके प्रभाव की सूचना मिलती है। इनकी मान्यता थी कि भिन्न होने पर शब्द भी भिन्न हो जाता है ।, 'लोचन' में उनट का मतः उपस्थित करते हुए अभिनवगुप्त ने कहा है कि वे गुणों को रीति या संघटन का धर्म स्वीकार करते थे, रस का नहीं।
' संघटनायाः धर्मो गुणा इति भट्टोद्यादयः ।। ::: ____ इन्होंने अभिधा के तीन प्रकार एवं अर्थ के दो प्रकार अविचारितसुस्थ तथाविचारित रमणीय-माने हैं। सर्वप्रथम उपमा के (व्याकरण के आधार पर) भेदों