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रत्नावली]
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[रत्नावली
कन्दपं सदृश सुन्दर राजा को देखकर उनके प्रति आकृष्ट हो जाती है। यहीं से उसके मन में प्रणय का अंकुर जम जाता है।
द्वितीय अंक में सागरिका, अपनी सखी सुसंगता से उदयन के प्रति, अपने प्रेमाकर्षण की बात कहती है। सागरिका ने चित्र-फलक पर राजा का चित्र बनाया था; सुसंगता ने उसके पाश्व में उदयन का चित्र बना दिया। इसी बीच राज-पालित एक बन्दर उपद्रव मचाता हुआ वहाँ आया और सागरिका सुसंगता के साथ चित्र-फलक छोड़ कर भयभीत होती हुई भाग गयो। तभी राजा उदयन विदूषक के साथ घूमते हुए आता है और उसे चित्र मिल जाता है। जब दोनों युवतियां चित्र लेने के लिए आती हैं, तभी वे छिप कर राजा और विदूषक का विधंभालाप सुनती हैं। सुसंगता राजा और सागरिका का मिलन करा देती है, पर रानी के आगमन के कारण उनका मिलन आगे चल नहीं पाता। रानी को विदूषक की असावधानी के कारण चित्र-फलक मिल जाता है और वह अंकित चित्र को देखकर अपने प्रबल क्रोध को प्रकट किये बिना चली जाती है। उसको शान्त करने के लिए राजा निष्फल प्रयत्न करता है, पर वासवदत्ता को सारी स्थिति का परिज्ञान हो जाता है।
तृतीय अंक में विदूषक द्वारा दोनों प्रेमियों को मिलाने की योजना सफल हो जाती है । सागरिका वासवदत्ता का तथा सागरिका का वेष धारण कर सुसंगता राजा से मिलने के लिए तैयार होती हैं, पर इस षड्यन्त्र का पता वासवदत्ता को लग जाता है और महाराज की इस कुत्सित भावना पर उसे अत्यधिक क्रोध होता है। जब सागरिका उसी वेश में उदयन मे मिलती है, उसी समय वासवदत्ता भी वहां पहुंच जाती है और उसे बड़ा क्रोध आता है। वह उदयन का प्रणय-निवेदन भी सुन लेती है। वासवदत्ता दोनों प्रेमियों को संयुक्तं देखकर प्रचंड क्रोध में भर कर विदूषक और सागरिका को बन्दी बना कर चल देती है।
चतुर्थ अंक के प्रवेशक से पता चलता है कि सागरिका रानी वासवदत्ता द्वारा बन्दी बनाकर उज्जयिनी भेज दी गयी, पर यह घटना प्रचारित की गयी है, वास्तविक नहीं है। इसी बीच एक ऐद्रजालिक राजा को जादू दिखाने के लिये प्रवेश करता है। खेल दिखाते समय ही अन्तःपुर में आग लग जाती है और उसकी लपटें चारों ओर फैलने लगती हैं। वासवदत्ता ने सागरिका को बन्दी बनाकर रखा था, अतः उसे उसके जल जाने की चिन्ता होने लगी। इसलिये उसने उसकी रक्षा के निमित्त राजा से याचना की। राजा उसकी सहायता के लिए आग में कूद पड़ता है और निगड़-बद सागरिका को सुरक्षित स्थिति में लाकर बाहर आ जाता है। पर, यह आग भी ऐन्द्रजालिक खेल ही थी। तत्क्षण योगन्धरायण प्रकट होकर समस्त घटना का रहस्योद्घाटन करता है। वसुभूति और ब्राभव्य का आगमन होता है और दोनों ही. पोत-मन की बात कहते हैं। बसुभूति राजकुमारी रत्नावली को पहचान लेता है और उसका वास्तविक परिचय देता है। वासवदत्ता रत्नावली को गले लगाती है और राजा से ब्याह करने की सहर्ष अनुमति दे देती है। वासवदत्ता की प्रार्थना पर राजा रत्नावली को पत्नी रूप में स्वीकार करते हैं और भरतवाक्य के साथ नाटिका की समाप्ति हो जाती है।