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वाक्यपदीय ]
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[वाक्यपदीय
'ध्वनि या व्यंग्या का खण्डन कर परार्थानुमान में उसका अन्तर्भाव करना।' यह संस्कृत काव्यशास्त्र का अत्यन्त प्रौढ़ ग्रन्थ है जिसके पद-पद पर उसके रचयिता का प्रगाढ़ अध्ययन एवं अद्भुत पाण्डित्य दिखाई पड़ता है। इस पर राजानक रुय्यक कृत 'व्यक्तिविवेकव्याख्यान' नामक टीका प्राप्त होती है जो द्वितीय विमर्श तक ही है । इस पर पं० मधुसूदन शास्त्री ने 'मधुसूदनी' विवृति लिखी है जो चौखम्बा विद्याभवन से प्रकाशित है। 'व्यक्तिविवेक' का हिन्दी अनुवाद पं० रेवाप्रसाद त्रिवेदी ने किया है जिसका प्रकाशन चौखम्बा विद्याभवन से हुआ है । प्रकाशनकाल १९६४ ई० ।
• वाक्यपदीय-यह व्याकरण-दर्शन का अत्यन्त प्रौढ़ ग्रन्थ है जिसके लेखक हैं भर्तृहरि [दे० भर्तृहरि ] । इसमें तीन काण्ड हैं-आगम या ब्रह्मकाण्ड, वाक्यकाण्ड एवं पदकाण्ड । ब्रह्मकाण्ड में अखण्डवाक्यस्वरूप स्फोट का विवेचन है । सम्प्रति इसका प्रथम काण्ड ही उपलब्ध है। 'वाक्यपदीय' पर अनेक व्याख्याएं लिखी गयी हैं। स्वयं भर्तृहरि ने भी इसकी स्वोपज्ञ टीका लिखी है। इसके अन्य टीकाकारों में वृषभदेव एवं धनपाल की टीकाएँ अनुपलब्ध हैं। पुण्यराज (११ वीं शती) ने द्वितीयकाण्ड पर स्फुटार्थक टीका लिखी है। हेलाराज ( ११ वीं शती) ने 'वाक्यपदीप' के तीनों काण्डों पर विस्तृत व्याख्या लिखी थी, किन्तु इस समय केवल तृतीय काण्ड ही उपलब्ध होता है। इनकी व्याख्या का नाम 'प्रकोण-प्रकाश' है । 'वाक्यपदीय' में भाषाशास्त्र एवं व्याकरण-दर्शन से सम्बद्ध कतिपय मौलिक प्रश्न उठाये गए हैं एवं उनका समाधान भी प्रस्तुत किया गया है। इसमें वाक् का स्वरूप निर्धारित कर व्याकरण की महनीयता सिद्ध की गयी है। इसकी रचना श्लोकबद्ध है तथा कुल १९६४ श्लोक हैं। प्रथम में १५६, द्वितीय में ४९३ एवं तृतीय १३२५ श्लोक हैं। इसके तीनों काण्डों के विषय भिन्न-भिन्न हैं। वस्तुतः, इसका प्रतिपाद्य दो ही काण्डों में पूर्ण हो जाता है तथा प्रथम दो काण्डों में आए हुए प्राकरणिक विषयों का विवेचन तृतीय काण्ड में किया गया है। इसके द्वितीयकाण्ड का नाम वाक्य काण्ड है और इसी में इसके नाम की सार्थकता सिद्ध हो जाती है। इस काण्ड में वाक्य एवं पद अथवा वाक्यार्थ एवं पदार्थ की सापेक्ष सत्ता का साधार विवेचन तथा भाषा की आधारभूत इकाई का निरूपण है।
१-ब्रह्मकाण्ड-इसमें शब्दब्रह्मविषयक सिद्धान्त का विवेचन है। भर्तृहरि शब्द को ब्रह्म मानते हैं। उनके अनुसार शब्द तत्त्व अनादि और अनन्त है। उन्होंने व्याकरण का विषय इच्छा न मानकर भाषा को ही उसका प्रतिपाद्य स्वीकार किया है तम्बताया है कि प्रकृति-प्रत्यय के संयोग-विभाग पर ही भाषा का यह रूप आश्रित है। पश्यन्ती, मध्यमा एवं वैखरी को वाणी का तीन चरण मानते हुए इन्हीं के रूप में व्याकरण का क्षेत्र स्वीकार किया गया है। २-द्वितीय काण्ड-इस काण्ड में भाषा की इकाई वाक्य को मानते हुए उस पर विचार किया गया है। इसके विषय की उद्घोषणा करते हुए भर्तृहरि कहते हैं कि 'नादों द्वारा अभिव्यज्यमान आन्तरिक. शब्द ही बाह्यरूप से श्रयमाण शब्द कहलाता है। अतः इनके अनुसार सम्पूर्ण वाक्य शब्द है । 'यदन्तः शब्दतत्त्वं तु नादैरेकं प्रकाशितम् । तमाहुरपरे शब्दे तस्य वाक्ये