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मुद्राराक्षस]
( ४०८ )
[मुद्राराक्षस
हत्या करना चाहता है। यह सुनकर अमात्य राक्षस अपने मित्र चन्दनदास की रक्षा करने के लिए चल पड़ते हैं।
सप्तम अंक में चाणक्य की कूटनीति सफलता के सोपान पर पहुंच जाती है, और उसे अभीष्ट की सिद्धि होती है। चन्दनदास सपरिवार वध्यभूमि की ओर ले जाया जाता है और उसे चाणक्य के दो गुप्तचर, जो चाण्डाल बने हुए हैं, ले जाते हैं । चन्दनदास को शूली पर चढ़ाने को ले जाया जाता है और उसकी पत्नी और बच्चे विलाप करने लगते हैं। राक्षस इस दृश्य को देखकर दुःखित होकर अपने को प्रकट करता है और चाण्डालों को भगाकर चन्दनदास को बचा लेता है। चाणक्य वहाँ उपस्थित होता है और राक्षस के समक्ष अपना सारा कूटनीतिक रहस्य खोल देता है, जिससे राक्षस के समक्ष सारी स्थिति स्पष्ट हो जाती है। चाणक्य राक्षस को चन्द्रगुप्त का अमात्यपद स्वीकार करने का आग्रह करता है, पर राक्षस इसे स्वीकार नहीं करता। इस पर चाणक्य कहता है कि इसी शतं पर चन्दनदास के प्राण की रक्षा हो सकती है, जब कि आप मन्त्रि-पद को ग्रहण करें। राक्षस विवश होकर अमात्यपद को ग्रहण करता है और मलयकेनु को उसके पिता का राज्य लौटा दिया जाता है। चन्दनदास नगरसेठ बना दिया जाता है और सभी बन्दी कारामुक्त कर दिये जाते हैं। चाणक्य की प्रतिज्ञा पूर्ण हो जाती है और वह अपनी शिखा बांधता है तथा भरतवाक्य के बाद नाटक की समाप्ति होती है। . नाव्यकला-विवेचन-'मुद्राराक्षस' विशाखदत्त की नाट्यकला का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। इसकी वस्तुयोजना एवं उसके संगठन में प्राचीन नाट्यशास्त्रीय नियमों की अवहेलना करते हुए स्वच्छन्दवृत्ति का परिचय दिया गया है। विशुद्ध राजनीतिक नाटक होने के कारण इसमें माधुयं तथा सौन्दर्य का अभाव है, और करुण तथा शृङ्गार रस नहीं दिखाई पड़ते । आद्यान्त इस नाटक का वातावरण गम्भीर बना रहता है। इसमें न तो किसी स्त्री पात्र का महत्वपूर्ण योग है और न विदूषक को ही स्थान दिया गया है। एकमात्र स्त्री-पात्र चन्दनदास की पत्नी है, किन्तु कक्षा के विकास में इसका कुछ भी महत्व नहीं है। संस्कृत में एकमात्र यही नाटक है जिसमें नाटककार ने रसपरिपाक की अपेक्षा घटना-वैचिश्य पर बल दिया है। यह घटना-प्रधान नाटक है। इसमें नाटककार की दृष्टि अभिनय पर अधिक रही है और उसने सर्वत्र इसके अभिनेय गुण की रक्षा की है। 'चाणक्य की राजनीति इतनी विकासशीला है कि समस्त घटनाएं एक दूसरी से मालावत होती हुई एक निश्चित तारतम्य के साथ उसमे समावेशित हो जाती हैं। कथानक में जटिलता होते हुए भी गठन की चारुता और सम्बन्ध निर्वाह की अपूर्व कुशलता लक्षित होती है ।' संस्कृत नाटक समीक्षा पृ० १५७ । कथावस्तु के विचार से 'मुद्राराक्षस' संस्कृत के अन्य नाटकों की अपेक्षा अधिक मोलिक है। इसमें घटनामों का संघटन इस प्रकार किया गया है कि प्रेक्षक की उत्सुकता कभी नष्ट नहीं होती। नाटक में वीररस का प्राधान्य है, पर कहीं भी युद्ध के दृश्य नहीं हैं। वस्तुतः यहाँ पन्नों का न होकर, दो कूटनीतिज्ञों की बुद्धि का संघर्ष दिखाया गया है। प्रेक्षक की दृष्टि सदा पाणक्य द्वारा फैलाये गए नीति-जाल में उलमती रहती है । इसके