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आयुर्वेद की परम्परा]
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[आयुर्वेद की परम्परा
आयुर्वेद शब्द का अर्थ इस प्रकार हैं-'आयु का पर्याय चेतना अनुबन्ध, जीविता. नुबन्ध, धारी है (चरक० सू० अ० ३०।२२)। यह आयु शरीर, इन्द्रिय, मन और आत्मा इन चार का संयोग है। आयु का सम्बन्ध केवल शरीर से नहीं है और इसका ज्ञान भी आयुर्वेद नहीं है। चारों का ज्ञान ही आयुर्वेद है। इसी दृष्टि से आत्मा और मन सम्बन्धी ज्ञान भी प्राचीन मत में आयुर्वेद ही है। शरीर आत्मा का भोगायतन, पंचमहाभूतविकारात्मक है, इन्द्रियाँ भोग का साधन हैं, मन अन्तःकरण है, आत्मा मोक्ष या ज्ञान प्राप्त करने वाला; इन चारों का अदृष्ट-कर्मवश से जो संयोग होता है, वही आयु है। इसके लिए हित-अहित, सुख-दुःख का ज्ञान तथा आयु का मान जहाँ कन्हीं हो, उसे आयुर्वेद कहते हैं।' आयुर्वेद का बृहत् इतिहास पृ० १४ ।
जीवनोपयोगी शास्त्र होने के कारण आयुर्वेद अत्यन्त प्राचीन काल से ही श्रद्धाभाजन बना रहा है। वैदिक साहित्य में भी इसके उल्लेख प्राप्त होते हैं। ऋग्वेद में आयुर्वेद के जन्मदाता दिवोदास, भरद्वाज एवं अश्विनीकुमार आदि के उल्लेख मिलते हैं-१।१२।१६ ।
वेदों में वैद्य के पाँच लक्षण बताये गए हैं तथा ओषधिथों मे गेगनाश, जलचिकित्सा. सोचिकित्सा, वायुचिकित्सा तथा मानस चिकित्सा के विवरण प्राप्त होते हैं। अजुर्वेद में ओषधियों के लिए बहुत से मन्त्र हैं तथा अथर्ववेद में इसका विशेष विस्तार है। कृमिविज्ञान का भी वर्णन वेदों में प्राप्त होता है । अथर्ववेद में अनेक वनस्पतियों का भी उल्लेख है--पिप्पली, अपामार्ग, पृश्निपर्णी, रोहिणी तथा कुष्ठरोग, क्लीबत्वनाश, हृदयरोग, मूढ़ग चिकित्सा, कामलारोग, रक्तसंचार आदि का भी वर्णन है । इसमें अनेक रोगों के नाम प्राप्त होते हैं और रोगप्रतीकार का भी वर्णन मिलता है। वेदों की तरह ब्राह्मणों, उपनिषदों, रामायण, महाभारत एवं पुराणों में भी आयुर्वेद के अनेकानेक तथ्य भरे पड़े हैं जो इसकी प्राचीनता एवं लोकप्रियता के द्योतक हैं। दे० आयुर्वेद का बृहत् इतिहास । ___ आयुवंद की परम्परा-भारतीय चिकित्साशास्त्र के आद्यप्रणेता ब्रह्मा माने गए हैं। इन्होंने ही सर्वप्रथम आयुर्वेदिक ज्ञान का उपदेश दिया था—सुश्रुत सूत्र ११६। 'चरक संहिता' के अनुसार आयुर्वेद का ज्ञान ब्रह्मा ने दक्ष प्रजापति को दिया और दक्ष ने अश्विनी को तथा अश्विनौ से इन्द्र ने इसका ज्ञान प्राप्त किया। इस परम्परा से भिन्न पुराणों की परम्परा है जिसमें अयुर्वेद का जन्मदाता प्रजापति को कहा गया है। प्रजापति ने चारों वेदों पर विचार कर पंचम वेद ( आयुर्वेद ) की रचना की और उसे भास्कर को दिया। भास्कर द्वारा इसे स्वतन्त्र संहिता का रूप दिया गया और उसने इसे अपने सोलह शिष्यों को पढ़ाया। इनमें धन्वन्तरि, दिवोदास, काशिराज, अश्विनी, नकुल, सहदेष, अर्की, च्यवन, जनक, बुध, जाबाल, जाजलि, पैल, करथ तथा अगस्त्य हैं। इन शिष्यों ने पृथक-पृथक तन्त्रों का निर्माण किया है। इनके द्वारा बनाये गए ग्रन्थों का विवरण इस प्रकार है-धन्वन्तरि-चिकित्सा-तत्वविज्ञान; दिवोदास-चिकित्सादर्शन, काशिराज-चिकित्साकौमुदी, अश्विनी-चिकित्सासारतंत्र तथा भ्रमघ्न; नकुल-वैद्यकसर्वस्व, सहदेव-व्याधिसिन्धुविमर्दन; यम-ज्ञानार्णवः