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हम्मेद]
[ऋग्वेद
साहित्य और संस्कृति पृ० ३०९ ] इसमें पहरू अक्षर के उदय तथा प्रकार का वर्णन कर ध्याकरण के विशिष्ट पारिभाषिक शब्दों के लक्षण दिये गए हैं। अक्षरों के उच्चारण, स्थान-विवरण एवं सन्धि का विस्तृत वर्णन है। 'गोभिलसूत्र' के व्याख्याता भट्टनारायण के अनुसार इसका सम्बन्ध राणायनीय शाखा के साथ है। [ डॉ० सूर्यकान्त शास्त्री द्वारा टीका के साथ १९३४ ई० में लाहौर से प्रकाशित ] ___ आधारग्रन्थ-वैदिक साहित्य और संस्कृति-आ० बलदेव उपाध्याय ।
ऋग्वेद-यह वैदिक वाङ्मय का सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ है। भारतीय प्राचीन आयों के धर्म, दर्शन, ज्ञान, विज्ञान, कला तथा साहित्यविषयक उपलब्धियों का एकमात्र स्रोत यही ग्रंथ है। इसके सम्बन्ध में मैक्समूलर का कहना है कि महीतल में जबतक गिरि और सरिताएं विद्यमान हैं तबतक 'ऋग्वेद' की महिमा बनी रहेगी। [ दे० मैक्समूलर ]
यावत् स्थास्यन्ति गिरयः सरितश्च महीतले ।
तावदृग्वेदमहिमा लोकेषु प्रचरिष्यति । संहिताओं में 'सामवेद' और 'यजुर्वेद' का अधिक सम्बन्ध तो यज्ञों से है, किन्तु 'ऋग्वेद' नाना दृष्टियों से अधिक महत्त्वपूर्ण है । पाश्चात्य मनीषियों के अनुसार 'ऋग्वेद' भापा एवं भाव की दृष्टि से अन्य वेदों से अधिक मूल्यवान् है । भारतीय विद्वानों के अनुसार इसकी महत्ता गूढ़ दार्शनिक विचारों एवं अभ्यहितत्त्व की दृष्टि से है। प्राचीन ग्रन्थों ने भी इसकी महत्ता मुक्तकण्ठ से प्रतिपादित की है। 'तैत्तिरीयसंहिता' में कहा गया है कि 'साम' एवं 'यजुः' के द्वारा जो यज्ञानुष्ठान किया जाता है; वह शिथिल होता है, किन्तु 'ऋग्वेद' के द्वारा विहित विधान हढ़ होता है ।
यद् वै यज्ञस्य साम्ना यजुषा क्रियते । शिथिलं तत्, यद् ऋचा तद् दृढमिति ॥
तैत्तिरीय संहिता ( ६५२१०१३) इसकी कई ऐसी विशेषताएँ हैं जिनके कारण यह वैदिक साहित्य में उच्चस्थान का अधिकारी है। इसमें ऋषियों का स्वतन्त्र चिन्तन है, किन्तु अन्य वेदों में इन बातों का सर्वथा अभाव है। 'यजुः' और 'सामवेद' 'ऋग्वेद' की विचारधारा से पूर्णतः प्रभावित हैं । 'सामवेद' की ऋचाएं 'ऋग्वेद' पर पूर्णतः आश्रित हैं, उनका कोई पृथक् अस्तित्व नहीं है। अन्यान्य संहितायें भी 'ऋग्वेद' के आधार पर पल्लवित हैं। यही नहीं, ब्राह्मणों में जितने विचार आये हैं, उनका मूल रूप 'ऋग्वेद संहिता' में ही मिलता है। आरण्यकों और उपनिषदों में जितने आध्यात्मिक चिन्तन हैं उन सबका आधार 'ऋग्वेद' है । उनका निर्माण 'ऋग्वेद' के उन अंशों से हुआ है जो पूर्णतः चिन्तनप्रधान हैं। ब्राह्मणों में नवीन मत की स्थापना नहीं है और न स्वतन्त्र चिंतन का प्रयास है। उनमें 'ऋग्वेद' के ही मन्त्रों की विधि तथा भाषा की छानबीन की गयी है एवं ईश्वरसम्बन्धी विचारों को पल्लवित किया गया है। विषय की दृष्टि से भी 'ऋग्वेद' का महत्त्व बढ़ा हुआ है। 'सामवेद' के सभी सूक्त ऋग्वेद के हैं। थोड़े-से मन्त्र इधर-उधर के हैं। अन्तर इतना ही है कि जहाँ 'ऋग्वेद' पठनीय है वहां