________________
चार्वाक की ज्ञानमीमांसा]
( १७७ )
[चार्वाक की शानमीमांसा
प्रमाण स्वीकार नहीं किया जा सकता । इनके अनुसार शब्द भी प्रमाण नहीं है। चार्वाक शब्द को वहाँ तक प्रमाण मानने के लिए तैयार हैं जहाँ तक इसका ज्ञान प्रत्यक्ष के द्वारा हो सके, किन्तु जब शब्द से प्रत्यक्ष के बाहर पदार्थों का ज्ञान होने लगे तो ऐसी स्थिति में इसे निर्दोष नहीं कहा जा सकता। ये वेद में भी विश्वास नहीं करते । इनके अनुसार वेद के कर्ता भण्ड, निशाचर एवं धूतं थे।
त्रयो वेदस्य कर्तारो भण्डधूर्तनिशाचराः।
जभरीतुर्फरीत्यादि पण्डितानां वचः स्मृतम् ।। स० द० सं० पृ. ४ तत्वमीमांसा-चाक आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी इन पंचभूतों में से आकाश के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते। चूंकि आकाश का ज्ञान अनुमान के द्वारा होता है, इनके लिए उसकी स्वीकृति असंभव है। चार्वाक के मत से संसार चार प्रकार के भूतों से ही बना हुआ है। तत्त्वों के संयोग से ही प्राणियों का जन्म होता है और मृत्यु के पश्चात् वे पुनः भूतों में ही समा जाते हैं। चार्वाक आत्मा की सत्ता को स्वीकार नहीं करता। उसके अनुसार प्रत्यक्ष के द्वारा ही चैतन्य का बोध होता है
और आत्मा कभी भी प्रत्यक्ष नहीं होती, अतः उसकी सत्ता असिद्ध है। जड़ या भूतों से निर्मित शरीर ही प्रत्यक्ष होता है और चैतन्य शरीर का ही गुण है, आत्मा का नहीं। इसलिए चेतन शरीर ही आत्मा है । जब शरीर से भिन्न आत्मा का अस्तित्व नहीं है तब उसका अमर या नित्य होना बकवास मात्र है । मृत्यु के साथ शरीर के नष्ट हो जाने पर जीवन भी नष्ट हो जाता है, अतः पुनर्जन्म, स्वर्ग, नरक, कर्मभोग आदि निराधार एवं अविश्वसनीय हैं। ईश्वर की सत्ता अनुमान एवं शब्द प्रमाण से सिद्ध होती है, पर प्रत्यक्ष को प्रमाण मानने के कारण चार्वाक उसे स्वीकार नहीं करता। ईश्वर का प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता, अतः चार्वाकदर्शन में ईश्वर की सत्ता असिद्ध है। इनके अनुसार स्वभावतः जगत् की सृष्टि एवं लय की प्रक्रिया होती है तथा उसकी सृष्टि का कोई प्रयोजन नहीं होता।
आचार मीमांसा-चार्वाक के अनुसार काम ही प्रधान पुरुषार्थ है और उसका सहायक है अर्थ । अतः ऐहिक सुख की प्राप्ति को ही ये जीवन का प्रधान सुख मानते हैं। इनका प्रसिद्ध वाक्य है कि जब तक जीये सुख से जीये और ऋण करके भी पत पीये क्योंकि भस्म हुआ शरीर फिर आ नहीं सकता
यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत् ।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं . कुतः ॥ भोगविलासपूर्ण जीवन व्यतीत करने के कारण चार्वाक की आचारमीमांसा आधिदैविक सुखनाद पर आश्रित है। चार्वाक ऐहिक सुख-भोग को जीवन का चरमलक्ष्य मानते हुए भी सामाजिक नियमों की अवहेलना नहीं करता। वह सामाजिक जीवन को आदर्श जीवन मानते हुए उच्छृखलता का विरोधी है। अतः आधिभौतिक सौख्यवाद का समर्थक होते हुए भी इसने इहलौकिक जीवन की सुख-समृद्धि का आकर्षण उत्पन्न कर जीवन के प्रति अनुराग का संदेश दिया। 12 सं० सा०