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मत्स्यपुराण]
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[ मत्स्यपुराण
'दुर्गासप्तशती' मार्कण्डयपुराण के अन्तर्गत एक स्वतन्त्र ग्रन्थ है; जिसके तीन विभाग हैं। इसके पूर्व में मधुकैटभवध, मध्यमचरित में महिषासुरवध एवं उत्तरपरित में शुम्भ-निशुम्भ तथा उनके सेनापतियों-चण-मुण्ड एवं रक्तबीज-के वर्ष का वर्णन है । इस सप्तशती में दुर्गा या देवी को विश्व की मूलभूत शक्ति के रूप में वर्णित किया गया है, तथा विश्व की मूल चितिशक्ति देवी को ही माना गया है । विद्वानों ने इसे गुप्तकाल की रचना माना है। डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार "मार्कण्डेयपुराण में तयुगीन जीवन की आस्था, भावनाएँ, कर्म, धर्म, आचार-विचार आदि तरङ्गित दिखाई पड़ते हैं। गुप्तयुगीन मानव एवं उसकी कम-शक्ति के प्रति आस्था की भावना का निदर्शन इस पुराण में है। यहां बतलाता गया है कि मानव में वह शक्ति है जो देवताओं में भी दुर्लभ है।..... कर्मबल के आधिक्य के कारण ही देवता भी मनुष्य का शरीर धारण कर पृथ्वी पर आने की इच्छा करते हैं।" मार्कण्डेयपुराण : एक सांस्कृतिक अध्ययन । मनुष्यः कुरुते तत्तु यन्न शक्यं सुरासुरैः । माकं० ५७।६३ । देवषीणामपि विप्रः सदा एष मनोरथः । अपि मानुष्यमाप्स्यामो देवत्वात्प्रच्युताः क्षिती ॥ ५७।६२ । इसमें विष्णु को कर्मशील देव तथा भारतभूमि को कर्मशील देश माना गया है।
__ आधारग्रन्थ-१. मार्कण्डेयपुराण-(हिन्दी अनुवाद सहित ) पं० श्रीराम शर्मा । २. माकंडेयपुराण : एक सांस्कृतिक अध्ययन-डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल । ३. मार्कण्डेयपुराण एक अध्ययन-पं० बदरीनाथ शुक्ल । ४. पुराण-विमर्श-पं० बलदेव उपाध्याय ।
मत्स्यपुराण-क्रमानुसार १६ वा पुराण। प्राचीनता एवं वयं-विषय के . विस्तार तथा विशिष्टता की दृष्टि से 'मत्स्यपुराण' सर्वाधिक महत्वपूर्ण पुराण है। 'वामनपुराण' में इस तथ्य की स्वीकारोक्ति है कि 'मत्स्य' पुराणों में सर्वश्रेष्ठ है'पुराणेषु तथैव मात्स्यम्' । 'श्रीमद्भागवत', 'ब्रह्मवैवर्त' तथा 'रेवामाहात्म्य' के अनुसार 'मत्स्यपुराण' की श्लोक संख्या १९००० सहन है। आनन्दाश्रम, पूना से प्रकाशित 'मत्स्यपुराण' में २९१ अध्याय एवं १४००० सहन श्लोक हैं। पाजिटर के अनुसार 'मत्स्यपुराण' का लेखन-काल द्वितीय शताब्दी का अन्तिम काल है। हाज़रा का कहना है कि 'मत्स्यपुराण' का रचनाकाल तृतीय शती का अन्तिम समय एवं चतुर्थ शताब्दी का प्रारम्भिक काल है। काणे के अनुसार 'मत्स्यपुराण' ६ ठी शताब्दी के बाद की रचना नहीं हो सकता। इस पुराण का प्रारम्भ प्रलयकाल की उस घटना से होता है जब विष्णु ने मत्स्य का रूप ग्रहण कर मनु की रक्षा की थी तथा प्रलय के बीच से नौकारूद मनु को बचाकर उनके साथ संवाद किया था। इसमें सृष्टिविद्या, मन्वन्तर तथा पितृवंश का विशेष विस्तार के साथ वर्णन किया गया है। इसके तेरहवें अध्याय में वैराज पितृवंश का, १४ वें में अग्निष्वात्त एवं १५३ में बहिषंद पितरों का वर्णन है। इसके अन्य अध्यायों में तीर्थयात्रा, पृथुचरित, सुबन-कोश, दान-महिमा, स्कन्दचरित, तीर्थमाहात्म्य, राजधर्म, श्राद्ध एवं गोत्रों का वर्णन है। इस पुराण में तारकासुर के शिव द्वारा वर्ष की कथा अत्यन्त विस्तार