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नागानन्द ]
( २३४)
[नागानन्द
खोज करता हुआ मलय पर्वत पर पहुंचता है जहाँ देवी गौरी के मन्दिर में अर्चना करती हुई उसे मलयवती दिखाई पड़ती है। दोनों मित्र गौरी देवी के मन्दिर में जाते हैं और मलयवती के साथ उनका साक्षात्कार होता है । मलयवती को स्वप्न में देवी गौरी उसका भावी पति जीमूतवाहन को बतलाती हैं। जब वह स्वप्न-वृत्तान्त को अपनी सखी से कहती है तभी जीमूतवन झाड़ी में छिपकर उनकी बातें सुन लेता है। विदूषक दोनों के मिलन की व्यवस्था करता है, किन्तु एक सन्यासी के आने से उनका मिलन सम्पन्न नहीं होता।
द्वितीय अंक में मलयवती का चित्रण कामाकुल स्थिति में किया गया है। जीमूतवाहन भी प्रेमातुर है। इसी बीच मित्रवसु आता है और अपनी बहिन मलयवती की मनःव्यथा को जानकर वह उसका विवाह किसी अन्य राजा से करना चाहता है । मलयवती को जब यह सूचना प्राप्त होती है तब वह प्राणान्त करने को प्रस्तुत हो जाती है, पर सखियों द्वारा यह कृत्य रोक लिया जाता है । जब मित्रवसु को ज्ञात होता है कि उसकी बहिन उसके मित्र से विवाह करना चाहती है तो वह प्रसन्न चित्त होकर उसका विवाह जीमूतवाहन से कर देता है ।
तृतीय तथा चतुर्थ अंक में नाटक के कथानक में परिवर्तन होता है। एक दिन भ्रमण करते हुए जीमूतवाहन तथा मित्रवसु समुद्र के किनारे पहुंच जाते हैं जहां उन्हें तत्काल बंध किये गए सौ की हड्डियों का ढेर दिखाई पड़ता है। वहाँ पर उन्हें शंखचूड़ नामक सर्प की माता विलाप करती हुई दिखाई पड़ती है जिससे विदित होता है कि ये हड्डियां गरुड़ के प्रतिदिन आहार के रूप में खाये गये सर्पो की हैं । इस वृत्तान्त को जान कर जीमूतवाहन अत्यन्त दुःखित होता है और अपने मित्र को एकाको छोड़ कर वह वलिदान-स्थल पर जाता है जहां शंखचूड़ की मां विलाप कर रही है, क्योंकि उस दिन उसके पुत्र की बलि होनेवाली है। जीमूतवाहन प्रतिज्ञा करता है कि वह स्वयं अपना प्राण देकर इस हत्याकाण्ड को बन्द करेगा।
पन्चम अंक में जीमूतवाहन पूर्वनिश्चय के अनुसार वलिदान के स्थान पर जाता है जिसे गरुड़ अपने चंचु में लेकर मलयपर्वत पर चल देता है। जीमूतवाहन को लोटा हुआ न देखकर उसके परिवार के लोग उद्विग्न हो जाते हैं। इसी बीच रक्त एवं मांस से लथपथ जीमूतवाहन की चूड़ामणि उसके पिता के समीप गिर पड़ती है और सभी लोग चिन्तित होकर उसकी खोज में निकल पड़ते हैं। मार्ग में जीमूतवाहन के लिए रोता हुआ शंखचूड़ मिलता है और सारा वृत्तान्त कह सुनाता है। सभी लोग गरुड़ के पास पहुंचते हैं। गरुड़ जीमूतवाहन को खाते-खाते उसका अद्भुत धैर्य देखकर उससे परिचय पूछते हैं और चकित हो जाते हैं। इसी बीच शङ्खचूड़ के साथ जीमूतवाहन के माता-पिता पहुंचते हैं और शंखचूड़ गरुड़ को अपनी गलती बतलाता है । गरुड़ अत्यधिक पश्चात्ताप करते हुए आत्महत्या करना चाहता है, पर जीमूतवाहन के उपदेश से भविष्य में हिंसा न करने का संकल्प करता है। जीमूतवाहन घायल होने के कारण मृतप्राय हो जाता है और गरुड़ उसे जीवित करने के लिए अमृत लाने चला जाता है।