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कुमपुराण ]
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[ कूर्मपुराण
रसुधा एवं विषमपदव्याख्यानषट्पदानन्द — दोनों ही ग्रन्थों के रचयिता सुप्रसिद्ध वैयाकरण नागोजीभट्ट हैं । इनमें प्रथम पुस्तक टीका है और दीक्षितक्रत कुवलयानन्द के कठिन पदों पर व्याख्यान रूप में रचित है। दोनों ही टीकाओं के उद्धरण स्टेनकोनो की ग्रन्थ-सूची में प्राप्त होते हैं । (ङ) काव्य मंजरी - इस टीका के रचयिता का नाम न्यायवागीश भट्टाचार्य है । (च) कुवलयानन्द टीका - इसकी रचना मथुरानाथ ने की है । (छ) कुवलयानन्द टिप्पण-इस टीका के रचयिता का नाम कुरवीराम है । ( ज ) लघ्वलंकारचन्द्रिका - इसके रचयिता देवीदत्त हैं । (झ) बुधरंजिनी - इस टीका के रचयिता वेंगलसूरि हैं । कुवलयानन्द का हिन्दी भाष्य डॉ० भोलाशङ्कर व्यास ने किया है जो चौखम्बा विद्याभवन से प्रकाशित है ।
आधारग्रन्थ - ( क ) भारतीय काव्यशास्त्र भाग १ - आ० बलदेव उपाध्याय । (ख) हिन्दी कुवलयानन्द ( भूमिका ) - डॉ० भोलाशङ्कर व्यास ।
कूर्मपुराण - क्रमानुसार १५ व पुराण । यह वैष्णव पुराण है । इसमें विष्णु के एक अवतार कूर्म या कछुए का वर्णन है, अत: इसे 'कूर्मपुराण' कहा जाता है । इसका प्रारम्भ कर्मावतार की स्तुति से होता है । प्राचीन समय में देव एवं दानवों के द्वारा जब समुद्र मंथन हुआ था तब उस समय विष्णु ने कूर्म का अवतार ग्रहण कर मन्दराचल को अपनी पीठ पर धारण किया था । 'कूर्मपुराण' में विष्णु की इसी कथा का विस्तार
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पूर्वक वर्णन है। 'मत्स्यपुराण' में कहा गया है कि विष्णु में कुमं का रूप धारण कर इन्द्र के समीप राजा इन्द्रद्युम्न को इस पुराण की कथा, लक्ष्मीकल्प में सुनाई थी, जिसमें अट्ठारह सहस्र श्लोक थे। इसमें धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष इन चारो पदार्थों का माहात्म्य बतलाया गया था । 'नारदपुराण' के अनुसार इसमें सत्रह हजार श्लोक हैं । इसके दो विभाग हैं-पूर्व तथा उत्तर पूर्व भाग में ५३ एवं उत्तर भाग में ४६ अध्याय हैं । 'कूर्मपुराण' से ज्ञात होता है कि इसमें चार संहिताएं थीं— ब्राह्मी, भागवती, सौरी तथा वैष्णवी । सम्प्रति केवल ब्राह्मी संहिता ही प्राप्त होती है जिसमें ६ हजार लोक हैं। इसका प्रथम प्रकाशन सन् १८९० ई० में नीलमणि मुखोपाध्याय द्वारा 'बिब्लोथिका sfuser' में हुआ था जिसमें ६ हजार श्लोक थे। इस पुराण में 'पुराणपञ्चलक्षण' का पूर्णतः समावेश है तथा सृष्टि, वंशानुक्रम एवं इसी क्रम में विष्णु के कई अवतारों की कथा कही गई है। इसमें काशी और प्रयाम के माहात्म्य का विस्तारपूर्वक वर्णन है जिसमें ध्यान और समाधि के द्वारा शिव का साक्षात्कार प्राप्त करने का निर्देश है । इस पुराण में शक्ति-पूजा पर अधिक बल दिया गया है और उनके सहस्र नाम प्रस्तुत किये गये हैं ।
'कूर्मपुराण' में भगवान् विष्णु को शिव के रूप में तथा लक्ष्मी को गौरी की प्रतिकृति के रूप में वर्णित किया गया है। शिव को देवाधिदेव के रूप में वर्णित कर उन्हीं की कृपा से कृष्ण को जाम्बवती की प्राप्ति का उल्लेख है । यद्यपि इसमें शिव को प्रमुख देवता का स्थान प्राप्त है फिर भी ब्रह्मा, विष्णु और महेश में सर्वत्र अभेद-स्थापन किया गया है तथा उन्हें एक ही ब्रह्म का पृथक्-पृथक् रूप माना गया है । इस दृष्टि से यह पुराण साम्प्रदायिक संकीर्णता से सर्वथा शून्य है । इसके उत्तर भाग में 'व्यासंगीता'