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जयन्तभट्ट ]
( १९३)
[जयदेव
आधारग्रन्थ-१. भारतीयदर्शन-० बलदेव उपाध्याय २. ध्वनि सम्प्रदाय और उसके सिद्धान्त-डॉ० भोलाशंकर व्यास ।।
जयन्तभट्ट-न्यायमम्जरी' नामक प्रसिद्ध न्यायशास्त्रीय ग्रन्थ के प्रणेता आ० जयन्तभट्ट हैं। इनका समय नवम शतक का उत्तराधं है। इस ग्रन्थ में 'गौतमसूत्र' के कतिपय प्रसिद्ध सूत्रों पर (दे० न्यायदर्शन ) 'प्रमेयबहुला' वृत्ति प्रस्तुत की गयी है। जयन्तभट्ट ने अपने ग्रन्थ में चार्वाक, बौद्ध, मीमांसा तथा वेदान्तमतावलम्बियों के मत का खण्डन भी किया है। इनके ग्रन्थ की भाषा अत्यन्त रमणीय एवं रोचक है । 'न्यायमन्जरी' में वाचस्पति मिश्र एवं ध्वन्यालोककार आनन्दवर्धन का उल्लेख है, अतः इनका समय नवम शतक का उत्तराद्धं सिद्ध होता है । जयन्तभट्ट की रचना न्यायशास्त्र के ऊपर स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में प्रतिष्ठित है। - आधारप्रन्थ-१. इण्डियन फिलॉसफी भाग २-डॉ. राधाकृष्णन् २. भारतीयदर्शन-आ० बलदेव उपाध्याय ३. हिन्दी तर्कभाषा ( भूमिका ) आ० विश्वेश्वर ।
जयतीर्थ-माध्वदर्शन के प्रसिद्ध आचार्य वनमाली मित्र हैं। [दे० माध्वदर्शन ] ये इस दर्शन के सर्वाधिक विद्वान् आचार्यों में से थे। इनका समय १४वी शताब्दी है। इन्होंने टीकाओं के अतिरिक्त स्वतन्त्र रूप से मौलिक ग्रन्यों की रचना कर माध्वदर्शन को परिपुष्ट किया था। इन्होंने मध्वरचित 'सूत्रभाष्य' पर 'तत्त्वप्रकाशिका', 'तत्त्वोद्योत', 'तत्त्वविवेक', 'तत्त्वसंख्यान', 'प्रमाणलक्षण' टीकाएँ लिखी हैं तथा 'गीताभाष्य' (मध्वरचित ) के ऊपर 'न्यायदीपिका' नामक टीका की रचना की है। इनके मौलिक ग्रन्थों में 'प्रमाणपद्धति' एवं 'वादावली' अत्यधिक प्रसिद्ध हैं जिनमें अद्वैतवाद का खण्डन कर द्वैतमत का स्थापन किया गया है । 'प्रमाणपद्धति' के ऊपर आठ टीकाएँ प्राप्त होती हैं। __ आधारग्रन्थ-दे० भारतीयदर्शन-आ० बलदेव उपाध्याय ।
जयदेव-ये संस्कृत के युगप्रवत्तंक गीतिकार हैं। इन्होंने 'गीतगोविन्द' नामक महान् गीतिकाव्य की रचना की है। ये बंगाल के राजा लक्ष्मणसेन के सभा कवि थे। इनका समय १२वीं शती का उत्तराध है । 'गीतगोविन्द' में राधाकृष्ण की ललित लीला का मनोरम एवं रसस्निग्ध वर्णन है। इस पर राजा कुम्भकर्ण एवं एक अज्ञातनामा लेखक की टीकाएं प्राप्त होती हैं जो निर्णयसागर प्रेस से प्रकाशित हैं। जयदेव का निवासस्थान 'केन्दुबिल्व' या 'केन्दुली' (बंगाल) था पर कतिपय विद्वान् इन्हें बंगाली न मानकर उत्कल निवासी कहते हैं। जयदेव के सम्बन्ध में कतिपय प्रशस्तियां प्राप्त होती हैं तथा कवि ने स्वयं भी अपनी कविता के सम्बन्ध में प्रशंसा के वाक्य कहे हैं।
आकर्ण्य जयदेवस्य गोविन्दानन्दिनीगिरः । बालिशाः कालिदासाय स्पृहयन्तु वयं तु न ॥ हरिहर-सुभाषितावली १७ गोवर्धनश्च शरणो जयदेव उमापतिः । कविराजश्च रत्नानि समिती लक्ष्मणस्य तु ॥ प्राचीनपद्य स्ववचन-यदि हरिस्मरणे सरसंमनो यदि विलासकलासु कुतूहलम् । कलितकोमलकान्तपदावलीं शृणु तदा जयदेव सरस्वतीम् ॥गीतगोविन्द १-३