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ज्योतिषशास्त्र].
[ज्योतिषशास्त्र
का जातक ग्रन्थ लिखा था और वाराहमिहिर के पुत्र पृथुयशाकृत फलित ज्योतिष का ग्रन्थ 'षट्पन्चाशिका' छठी शताब्दी में ही लिखा गया जिस पर भट्टोत्पल ने टीका लिखी। इस युग के अन्य प्रसिद्ध आचार्य ब्रह्मगुप्त जिन्होंने 'ब्रह्मस्फुटसिद्धान्त' तथा 'खण्डखाद्यक' नामक करण ग्रन्थ का प्रणयन किया। पूर्वमध्यकाल के अन्य ज्योतिष. शास्त्रियों का विवरण इस प्रकार है
मुंजाल-लघुमानस, महावीर-ज्योतिषपटल, गणितसारसंग्रह।
श्रीपति-पाटीगणित, बीजगणित, सिद्धान्तशेखर, श्रीपतिपद्धति, रत्नावली, रत्नसार एवं रत्नमाला ( दशम शताब्दी का उत्तराखं)।
श्रीधराचार्य-गणितसार, ज्योतिर्ज्ञान । पूर्वमध्यकाल में फलित ज्योतिष के संहिता एवं जातक अंगों का अधिक प्रणयन किया गया तथा ग्रहगणित चरमसीमा पर पहुंच गया । छठी शताब्दी के आसपास भारतीय ज्योतिषशास्त्र का संपकं ग्रीक, अरव एवं फारस देशों के भी साथ हो गया और 'ब्रह्मस्फुटसिद्धान्त' प्रभृति ग्रन्थों के अरबी भाषा में अनुवाद भी हुए।
ज्योतिषशास्त्र का उत्तरमध्यकाल व्याख्या, आलोचना तथा मौलिक-ग्रन्थ-लेखन का युग था। इस युग में अनेक नवीन आविष्कार हुए जिनमें गोलगणित, केन्द्राभिकर्षिणी तथा केन्द्राभिचारिणी आदि क्रियात्मक शक्तियां प्रसिद्ध हैं । इस युग के आचार्यों ने सूर्य को गतिशील तथा पृथ्वी को स्थिर माना । आचार्यों ने अनेक यन्त्रों का निर्माण कर ग्रहवेध-निरीक्षण के तरीकों को निकाल कर आकाशमण्डलीय ग्रहों का अध्ययन किया। इस युग में फलितज्योतिष के भी विभिन्न अंगों का निर्माण हुआ और जातक, मुहत्त, सामुद्रिक, ताजिक, रमल एवं प्रश्न प्रभृति इसके अंग प्रथम-प्रथम निर्मित हुए। रमल एवं ताजिक इस युग के दो ऐसे अंग हैं जो भारतीय ज्योतिष में यवन-प्रभाव के कारण निर्मित हुए। इसी युग ने महान् ज्योतिषी भास्कराचार्य को जन्म दिया था जिन्होंने अपने सिद्धान्तों के द्वारा भारतीय ज्योतिष को विश्वव्यापी महत्त्व प्रदान किया । इनका समय १११४ ई. है। इन्होंने 'सिद्धान्तशिरोमणि' एवं 'मुहतचिन्तामणि' नामक ग्रन्थों की रचना की है और फलित-विषयक ग्रन्थों का भी निर्माण किया जो सम्प्रति अनुपलब्ध हैं। [दे० भास्कराचार्य ] मिथिलानरेश लक्ष्मणसेन के पुत्र बल्लालसेन ने 'अद्भुतसागर' नामक ग्रन्थ लिखा जिसमें पूर्ववर्ती सभी आचार्यों के सिद्धान्तों का संग्रह है। यह ग्रन्थ आठ हजार श्लोकों का है । नीलकण्ठ देवज्ञ ने 'ताजिकनीलकण्ठी' नामक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ का प्रणयन किया जो अरबी-फारसी भाषा के ज्योतिषगन्यों के आधार पर निर्मित है। इनके अनुज राम दैवज्ञ ( १५२२ ई० ) ने 'मुहूर्तचिन्तामणि' नामक ग्रन्थ का निर्माण किया तथा अकबर के आदेश से 'रामविनोद' एवं टोडरमल की प्रसन्नता के लिए 'डोडरानन्द' की रचना की । इस युग में अनेक टीका ग्रन्थ भी लिखे गए जिनसे इस शास्त्र का अधिक विकास हुआ। उत्तरमध्यकाल के अन्य ग्रन्थकारों में शतानन्द, केशवाक, कालिदास, महादेव, गंगाधर, भक्तिलाम, हेमतिलक, लक्ष्मीदास, ज्ञानराज, अनन्तदैवज्ञ, दुलंभराज, हरिभद्रसूरी, विष्णुदेवश, सूर्यदेवा, जगदेव, कृष्ण