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विक्रम चरित या सिंहासन द्वात्रिशिका]( ५०३ )
[विक्रमोवंशीय
विचार प्रकट किये हैं-के वैकटनितम्बेन गिरां गुम्फेन रंजिताः । निन्दन्ति निजकान्तानां न मौग्ध्यमधुरं वचः। इनकी एक कविता दी जा रही है-अन्यासु तावदुपमदंसहासु भृङ्ग! लोल विनोदय मनः सुमनोलतासु। मुग्धामजातरजसं. कलिकामकाले व्यर्थ कदर्थयसि कि मवमखिकायाः ॥ र भौरे! तेरे मर्दन को सहनेवाली अन्य पुष्पलताओं में अपने चंचल चित्त को विनोदित कर । अनखिली केसररहित इस नवमल्लिका की छोटी कली को अभी असमय में क्यों व्यर्थ दुःख दे रहा है। अभी तो उसमें केसर भी नहीं है, बेचारी खिली तक नहीं है। इसे दुःख देना क्या तुझे सुहाता है ? यहाँ से हट जा।'
विक्रम चरित या सिंहासन द्वात्रिंशिका-यह संस्कृत का लोकप्रिय कथासंग्रह है। इसके रचयिता का पता नहीं चलता। इसके तीन संस्करण उपलब्ध हैंक्षेमंकर का जैन संस्करण, दक्षिण भारतीय पाठ एवं वररुचिरचित कहा जाने वाला बङ्गाल का पाठान्तर। इसमें ३२ सिहासनों या ३२ पुतलियों की कहानी है। राजा भोज पृथ्वी में गड़े हुए महाराज विक्रमादित्य के सिंहासन को उखाड़ता है और ज्योंही उस पर बैठने की तैयारी करता है कि बत्तीसों पुतलियां राजा विक्रम के पराक्रम का वर्णन कर उसे बैठने से रोकती हैं। वे उसे अयोग्य सिद्ध कर देती हैं। इसमें राजा की उदारता एवं दानशीलता का वर्णन है। राजा अपनी वीरता से जो भी धन प्राप्त करता था उसमें से आधा पुरोहित को दान कर देता था। क्षेमंकर जैन वाले संस्करण में प्रत्येक गद्यात्मक कहानी के आदि एवं अन्त में पद्य दिये गए हैं, जिनमें विषय का संक्षिप्त विवरण है। इसके एक अन्य पाठ में केवल पद्य प्राप्त होते हैं। अंगरेज विद्वान् इडगटन ने सम्पादित कर इसे रोमन अक्षरों में प्रकाशित कराया था, जो दो भागों में समाप्त हुआ है। इसका प्रकाशन हारवर्ड ओरियण्टल सीरीज से १९२६ ई. में हुमा है। इसका हिन्दी अनुवाद सिंहासनबतीसी के नाम से हुआ है। विद्वानों ने इसका रचना काल १३ वीं शताब्दी से प्राचीन नहीं माना है। डॉ. हर्टल की दृष्टि में जैन विवरण मूल के निकट एवं अधिक प्रामाणिक है, पर इडगर्टम दक्षिणी वनिका को ही अधिक प्रामाणिक एवं प्राचीनतर मानते हैं। दोनों विवरणों में हेमाद्रि के 'दानखम' का विवरण रहने के कारण इसे १३ वीं शताब्दी के बाद की रचना माना गया है। [हिन्दी अनुवाद सहित चौखम्भा विद्याभवन से प्रकाशित ]।
विक्रमोर्वशीय-यह महाकवि कालिदास विरचित पांच अंकों का त्रोटक है [ उपरूपक का एक प्रकार ] । इसके नायक-नायिका मानवी तथा देवी दोनों ही कोटियों से सम्बद्ध हैं। इसमें महाराज पुरुरवा एवं उसी की प्रणय-कथा का वर्णन है । कैलाश पर्वत से इन्द्रलोक लौटते समय राजा पुरुरवा को ज्ञात होता है कि स्वर्ग की अप्सरा उसी को कुबेर भवन से माते समय केशी नामक दैत्य ने पकड़ लिया है। राजा उसी का उस दैत्य से उद्धार करता है तथा उसके नैसर्गिक एवं उदभुत सौन्दयं पर अनुरक्त हो जाता है। राजा उर्वशी को उसके सम्बन्धियों को सौंप कर राजधानी लोट बाता है और उर्वशी-सम्बन्धी अपनी मनोव्यथा की सूचना अपने मित्र विदूषक को दे देता है। इसी बीच भोजपत्र पर लिखा हुबा उर्वशी का एक प्रेमपत्र राजा को मिलता