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जैन साहित्य ]
( १९७ )
[ जैन साहित्य
४ – स्यात् अवक्तव्यम् ( किसी अपेक्षा से वस्तु का रूप निर्दिष्ट नहीं किया जा सकता ) ।
५ – स्यादस्ति च स्यादवक्तव्यम् ( किसी अपेक्षा से वस्तु का रूप है भी तथा अवक्तव्य भी है ) ।
६ - स्यान्नास्ति च स्याद् अवक्तव्यम् ( कथंचित् नहीं है और अवक्तव्य है ) ।
७ - स्यादस्ति च नास्ति च अवक्तव्यं च (कथंचित् है, नहीं है तथा अवक्तव्य है) । तत्त्वसमीक्षा - जैनदर्शन में सत् द्रव्य का लक्षण है तथा सत् का लक्षण है—उत्पाद, our और ध्रौव्य । उत्पाद उत्पत्ति का व्यय विनाश का तथा ध्रौव्य स्थिरता का द्योतक है । इसका अभिप्राय यह हुआ कि जिस वस्तु में प्रत्येक समय उत्पत्ति, विनाश एवं स्थिरता विद्यमान रहे, उसे सत् कहा जायगा । इस मत में द्रव्य एक मात्र तत्त्व माना गया है और उसके ६ प्रकार होते हैं
जीव
मुक्त
स्थावर जीव
संसारी
जंगम
द्रव्य
I
पुद्गल आकाश
T
अजीव
धर्म
अघमं काल
अणु
संघात
द्रव्य में सत्ता के तीनों ही लक्षण विद्यमान रहते हैं । वह अपने गुण के द्वारा नित्य होता है क्योंकि गुण परिवर्तित नहीं होता तथा परिवर्तनशील पदार्थों का उत्पत्ति और विनाश अवश्यंभावी है । अतः इसमें ये दोनों ही तत्त्व विद्यमान हैं ।
जीव-चेतन द्रव्य ही जीव या आत्मा कहा जाता है क्योंकि इसमें चैतन्य के तत्त्व विद्यमान रहते हैं, पर भिन्न-भिन्न जीवों में स्वरूप एवं मात्रा का अनुपात भिन्न होता है । जीव नित्य एवं प्रकाशमान है और वह अन्य पदार्थों को भी प्रकाशित करता है । वही ज्ञान प्राप्त करता है और कर्म भी करता है । उसे ही दुःख-सुख भोगना पड़ता है और उसकी अवस्थाएँ परिवर्तित होती रहती हैं। वह कर्त्ता और भोक्ता दोनों ही है तथा सम्पूर्ण शरीर में परिव्याप्त रहता है । उसके दो प्रकार हैं-संसारी और मुक्त | संसारी जीव कर्म-बन्धन के वश में होकर जन्म और मरण प्राप्त करता है, पर मुक्त बन्धनों से मुक्त रहता है ।
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अजीव - जिन द्रव्यों में चैतन्य का अभाव होता है, वे अजीव कहे जाते हैं । अजीव में चेतना नहीं होती पर उसे स्पर्श, स्वाद एवं घ्राण के द्वारा जाना जा सकता