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न्याय प्रमाण - मीमांसा ]
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[ न्याय प्रमाण-मीमांसा
ईश्वर - न्याय दर्शन में ईश्वर एक मौलिक तत्त्व के रूप प्रतिष्ठित है । ईश्वर के अनुग्रह के बिना जीव को न तो प्रमेयों का वास्तविक ज्ञान हो पाता है और न उसे जागतिक दुःखों से छुटकारा ही मिल पाता है । न्यायदर्शन में ईश्वर संसार का रचयिता, पालक तथा संहारक माना जाता है। ईश्वर सृष्टि की रचना नित्य परमाणुओं, दिक्, काल, आकाश, मन तथा आत्माओं के द्वारा करता है । वही संसार की व्यवस्था करता है । अतः वह विश्व का निमित्त कारण है, उपादान कारण नहीं । नैयायिकों
ईश्वर-सिद्धि के प्रबल एवं तर्कसंगत प्रमाण उपस्थित किये हैं । प्रथम प्रमाण कार्यकारण के सम्बन्ध में है । विश्व के सभी पदार्थ कार्यं हैं । इसके प्रमाण दो हैं, पहला यह कि वे सावयव हैं, अवयव या अंशों से युक्त हैं और परिमाण में सीमित भी हैं । इन कार्यों का कर्ता कोई अवश्य होगा । घट और कुम्भकार का उदाहरण प्रत्यक्ष है । क्योंकि बिना कोई कुशल कर्त्ता के इनका वैसा आकार संभव नहीं है । उसे निश्चित रूप से सर्वज्ञ होना चाहिए तथा सर्वशक्तिमान् एवं व्यापक भी। विश्व का अन्तिम उपादान है परमाणु, जो जड़ होता है । अतः जब तक उस जड़ परमाणु को चेतन अध्यक्ष का संरक्षण नहीं प्राप्त होता तब तक सुव्यवस्थित एवं नियम से परिचालित विश्व की सृष्टि नहीं हो सकती ।
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अतः ऐसा प्रतीत
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हमारे जीवन के अनुसार मनुष्य को
ईश्वर अदृष्ट का अधिष्ठाता है। संसार में मनुष्यों के भाग्य में अन्तर दिखाई पड़ता है। कुछ सुखी हैं तो कुछ दुःखी, कुछ मूर्ख तो कुछ महान् पण्डित । इसका कारण क्या हैं ? ऐसा नहीं कहा जा सकता कि ये सारी घटनाएँ अकारण हैं होता है कि जीवन की सारी घटनाओं का कोई कारण अवश्य है सुख-दुःख निश्चित रूप से इस जीवन के कर्म-फल हैं। कर्म-नियम के सुकर्मों से सुख एवं कुकर्मों से दुःख की प्राप्ति होती है । होता है और कारण से ही कार्य की उत्पत्ति होती है, संसार का स्रष्टा ईश्वर को मानने पर सुकर्म एवं कुक्रमं का आवश्यक है | अतः कर्मानुसार फल के सिद्धान्त के आधार णिक हो जाती है ।
इससे प्रत्येक कार्य का कारण यह विचार सिद्ध हो जाता है।
सुखद एवं दुःखद फल होना पर ईश्वर की सत्ता प्रामा
पाप कर्म का फल
पाप और पुण्य के फल या कर्म-फल के बीच अधिक समय के अन्तर को देखकर यह प्रश्न उठता है कि दोनों के बीच कार्य-कारण का सम्बन्ध संभव नहीं है । जीवन के बहुतेरे दुःखों का कारण जीवन में प्राप्त नहीं होता । युवावस्था के वृद्धावस्था में मिलता है, इसका कारण क्या है ? इसका कारण यह है कि पाप-पुण्य का संचय अदृष्ट के रूप में होता है तथा पाप-पुण्य के नष्ट हो जाने पर भी वे आत्मा में विद्य मान रहते हैं । ईश्वर ही हमारे अदृष्ट का नियन्ता होता है और सुख-दुःख (प्राणियों के) का वही सम्पादन भी करता है। इस प्रकार कर्मफल दाता एवं अदृष्ट का नियन्त्रण करने के कारण ईश्वर की सत्ता सिद्ध होती है । धर्मग्रन्थों की प्रामाणिकता तथा अप्रवचन भी ईश्वर-सिद्धि के कारण हैं। हमारे यहाँ वेदों का प्रामाण्य सर्वसिद्ध है । वेद जिसे धर्म कहता है; वही धर्म है और जिसका वह निषेध करता है, वह अधमं होता है । वेदों के