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कुन्दकुन्दाचार्य ]
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[ कुवलयानन्द
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ग्रहण
कुन्तक सालङ्कार शब्दार्थ को काव्य मानते हैं । इनके अनुसार वे ही शब्दार्थ काव्य में किये जा सकते हैं जो अलंकारयुक्त हों । वे अलंकार को काव्य का धर्म न मान कर उसका स्वरूप या आत्मा स्वीकार करते हैं । इन्होंने स्वभावोक्ति एवं रसवद् अलंकार को अलंकार्य माना है, अलंकार नहीं । इस दृष्टि से स्वभावोक्ति को अलंकार मानने वालों की वे आलोचना भी करते हैं । वक्रोक्ति को काव्य की आत्मा मान कर कुन्तक ने अपूर्वं मौलिक प्रतिभा का परिचय दिया है और युगविधायक काव्यशास्त्रीय सिद्धान्त की स्थापना की है ।
आधारग्रन्थ- वक्रोक्तिजीवितम् (भूमिका) - हिन्दी व्याख्या आचार्यं विश्वेश्वर । कुन्दकुन्दाचार्य - जैन दर्शन के प्रसिद्ध आचार्यं । इनका जन्म द्रविड़ देश में हुआ था । ये दिगम्बर सम्प्रदाय के आचार्य थे । कुन्दकुन्दाचार्य का समय प्रथम शताब्दी माना जाता है । इन्होंने 'कुन्दकुन्द' नामक ग्रन्थ का प्रणयन किया है जिसका द्राविड़ी नाम 'कोण्डकुण्ड ' है । इनके अन्य चार ग्रन्थ भी प्रसिद्ध हैं । जिन्हें जैन आगम का सर्वस्व माना जाता है । वे हैं - नियमसार, पंचास्तिकायसार, समयसार एवं प्रवचनसार । अन्तिम तीन ग्रन्थ जैनियों में नाटकत्रयी के नाम से विख्यात हैं ।
आधारग्रन्थ – १ भारतीय दर्शन - ( भाग १ ) डॉ० राधाकृष्णन्, ( हिन्दी अनुवाद) २. भारतीयदर्शन- - आचार्य बलदेव उपाधाय ।
कुवलयानन्द - अलंकार का प्रसिद्ध ग्रन्थ । इसके रचयिता आ० अप्पयदीक्षित हैं । [ दे० अप्पयदीक्षित ] इसमें १२३ अर्थालंकारों का विस्तृत विवेचन किया गया है। 'कुवलयानन्द' की रचना जयदेव कृत 'चन्द्रालोक' के आधार पर हुई है और इसमें सभी अलंकारों का वर्णन हुआ है । दीक्षित ने इसमें 'चन्द्रालोक' की ही शैली अपनायी है जिसमें एक ही श्लोक में अलंकार की परिभाषा एवं उदाहरण प्रस्तुत किये गए हैं । 'चन्द्रालोक' के अलंकारों के लक्षण 'कुवलयानन्द' में ज्यों के त्यों ले लिये गए हैं और दीक्षित ने उनके स्पष्टीकरण के लिए अपनी ओर से विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की है । दीक्षित ने अनेक अलंकारों के नवीन भेदों की कल्पना की है और लगभग १७ नवीन अलंकारों का भी वर्णन किया है। वे हैं- प्रस्तुतांकुर, अल्प, कारकदीपक, मिथ्याध्यवसिति, ललित, अनुज्ञा, मुद्रा, रत्नावली, विशेषक, गूढोक्ति, विवृतोक्ति, युक्ति, लोकोक्ति, छेकोक्ति, निरुक्ति, प्रतिषेध एवं विधि । यद्यपि इन अलंकारों के वर्णन भोज, शोभाकर मित्र एवं यशस्क के ग्रन्थों में भी प्राप्त होते हैं पर इन्हें व्यवस्थित रूप प्रदान करने का श्रेय दीक्षित को ही है । 'कुवलयानन्द' अलंकार विषयक अत्यन्त लोकप्रिय ग्रन्थ है और प्रारम्भ से ही इसे यह गुण प्राप्त है । इस पर दस टीकाओं की रचना हो चुकी है । ( क ) रसिकरंजिनी टीका - इसके रचयिता का नाम गंगाधर वाजपेयी या गंगाध्वराध्वरी है । ये तंजोरनरेश राजाशाह जी के आश्रित थे ( सन् १६५४ - १७११ ई० ) । इस टीका का प्रकाशन सन् १८९२ ई० में कुम्भकोणम् से हो चुका है जिस पर हालास्य नाथ की टिप्पणी भी है। ( ख ) अलंकारचन्द्रिका— इसके लेखक वैद्यनाथ तत्सत् हैं । ( ग ) अलंकारदीपिका - इसके प्रणेता का नाम आशाधर भट्ट है । यह टीका कुवलयानन्द के केवल कारिको भाग पर है। (घ) अलंका
१० सं० सा०