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मुकुलभट्ट कृत अभिधा वृत्तिमातृका] ( ४०३ )
शृङ्गारीमुक्तकं लिखने वाले कवियों में पण्डितराज जगन्नाथ भी उन्होंने 'भामिनीविलास' में उच्चकोटि के शृङ्गारपरक पद्य परक मुक्तक काव्य लिखने वालों में चाणक्य ( चाणक्यनीति ), तथा भाट ( भटशतक ) के नाम प्रसिद्ध हैं ।
[ मुंजाल
अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं । प्रस्तुत किये हैं। नीतिभर्तृहरि ( नीतिशतक )
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मुकुलभट्ट कृत अभिधावृत्तिमातृका - अभिधावृत्तिमातृका काव्यशास्त्र का लघु किन्तु प्रौढ़ ग्रन्थ है। इसमें अभिधा को हो एकमात्र शक्ति मान कर उसमें लक्षणा एवं व्यंजना का अन्तर्भाव किया गया है। मुकुलभट्ट का समय नवम शताब्दी है । अपने ग्रन्थ के अन्त में लेखक ने अपने को कलटभट्ट का पुत्र कहा है – भट्टकल्लट पुत्रेग मुकुलेन निरूपिता । 'राजतरङ्गिणी' में भट्टकल्लट अवन्तीवर्मा के समकालीन कहे गए हैं - अनुग्रहाय लोकानां भट्टाः श्रीकल्लटादय: । अव न्तवर्मणः काले सिद्धा भुवमवातरन् ।। ५।५६ | अवन्तिवर्मा का समय ८५५ से ८८४ ई० पर्यन्त है । उद्भटकृत 'काव्यालंकारसारसंग्रह' के टीकाकार प्रतीहारेन्दुराज ने अपने को मुकुलभट्ट का शिष्य कहा है तथा इन्हें मीमांसाशास्त्र, साहित्यशास्त्र, व्याकरण, एवं तर्क का प्रकाण्ड पण्डित माना है । 'अभिधावृत्तिमातृका' में केवल १५ कारिकायें हैं जिन पर लेखक ने स्वयं वृत्ति लिखी है । मुकुलभट्ट व्यंजना विरोधो आचार्य हैं । इन्होंने अभिवा के दस प्रकारों की कल्पना कर उसमें लक्षणा के छह भेदों का समावेश किया है। अभिया के जात्यादि चार प्रकार के अर्थबोधक चार भेद किये गए हैं और लक्षणा छह भेदों को अभिधा में ही गतार्थ कर उसके दस भेद माने गए हैं। व्यंजना शक्ति की इन्होंने स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार न कर उसके सभी भेदों का अन्तर्भाव लक्षणा में हो किया है। इस प्रकार इनके अनुसार एकमात्र अभिधा को ही शब्दशक्ति स्वीकार किया गया है— इत्येतदभिधावृत्तं दशधात्र विवेचितम् ॥ १३ ॥ आचार्य मम्मट ने 'काव्य - प्रकाश' के शब्दशक्ति प्रकरण में 'अभिधावृत्तिमातृका' के विचार का अधिक उपयोग किया है । आ० मम्मट ने मुकुलभट्ट के ग्रन्थ के आधार पर 'शब्दव्यापारविचार' नामक ग्रन्थ का भी प्रणयन किया था ।
आधारग्रन्थ क - संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास - डॉ० पा० वा० काणे । ख - काव्यप्रकाश - हिन्दी भाष्य आचार्य विश्वेश्वर ।
मुंजाल - ज्योतिप्रशास्त्र के प्रसिद्ध आचार्य । इनका समय ८५४ शक् संवत् या ९३२ ई० है । इन्होंने 'लघुमानस' नामक सुप्रसिद्ध ज्योतिष विषयक ग्रन्थ की रचना की थी जिसमें आठ प्रकरण हैं। इसमें वर्णित विषय के अनुसार प्रत्येक अध्याय का नामकरण किया गया है - मध्यमाधिकार, स्पष्टाधिकार, तिथ्यधिकार, त्रिप्रश्नाधिकार, ग्रहयुत्यधिकार, सूर्यग्रहणाधिकार, चन्द्रग्रहणाधिकार तथा शृङ्गोन्नत्यधिकार | ज्योतिषशास्त्र के इतिहास में इनका महत्व दो कारणों से है । इन्होंने सर्वप्रथम ताराओं का निरीक्षण कर नवीन तथ्य प्रस्तुत करने की विधि का आविष्कार किया है। इनकी द्वितीय देन चन्द्रमा सम्बन्धी है । 'इनके पहले किसी भारतीय ज्योतिषी ने नहीं लिखा था कि चन्द्रमा में मन्दफल संस्कार के सिवा और कोई संस्कार भी करना चाहिए । परन्तु इन्होंने यह स्पष्ट कहा है।' भारतीय ज्योतिष का इतिहास पृ० १८७ । म० मं०