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मीमांसादर्शन ]
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[मीमांसादर्शन
के अनुष्ठान से फल की प्राप्ति का कथन किया गया है। पर, कम-फल-सम्बन्ध को प्रत्यक्ष नहीं देखा जा सकता। इससे यह सिद्ध होता है कि वेद की रचना पुरुष द्वारा नहीं हुई है। ___ अर्थापत्ति-मीमांसा में पंचम प्रमाण अर्धापत्ति है । अर्थापत्ति उस घटना को कहते हैं जो बिना दूसरे विषय के समझ में न आये। अर्थात् जिसके द्वारा कोई अन्यथा उपपन्न विषय उपपन्न हो जाय उस कल्पना को अर्थापत्ति कहते हैं। इसके द्वारा प्राप्त ज्ञान प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द के अन्तर्गत न आकर विलक्षण होता है । अनुपलब्धिइसका अर्थ है किसी पदार्थ की अप्राप्ति । किसी विषय के अभाव का साक्षात् ज्ञान होने को अनुपलब्धि कहते हैं। मीमांसा-दर्शन में सभी ज्ञान को स्वतः प्रमाण माना गया है। इसमें बतलाया गया है कि पर्याप्त सामग्री के बिना ज्ञान की उत्पत्ति संभव नहीं है। वैदिक विधान को अधिक महत्व देते हुए उसे धर्म कहा गया है और वही अधर्म है जिसका वेद निषेध करता है। मतः वेद-विहित कर्मों का पालन तथा वेदबर्जित कर्मों का त्याग ही धर्म माना जाता है। यदि निष्काम भाव से धर्म का आचरण किया जाय तो वही कर्तव्य माना जायगा। वेद-विहित कर्मों को वेद का आदेश मान कर करना चाहिए न कि किसी फल की आशा से । प्राचीन मीमांसकों ने स्वर्ग-प्राप्ति को हो परम सुख या मोक्ष माना था, किन्तु कालान्तर में मोक्ष का अभिप्राय दुःखनाश एवं जन्म का नाश समझा जाने लगा।
मीमांसा-दर्शन अनीश्वरवादी होते हुए भी वेद को नित्य मानता है । यह कमप्रधान दर्शन है, जिसमें कर्मों की तीन श्रेणियां हैं-काम्य, निषिद्ध तथा नित्य । किसी कामना की पूत्ति के लिए किया गया कर्म काम्य कहा जाता है। जैसे, स्वर्ग की प्राप्ति के लिए यज्ञ करना। वेद-अविहित कम या वेद-असम्मतकम को निषिद्ध कहते हैं। नित्य कर्म वे हैं जिन्हें सभी व्यक्ति करें। ऐसे कम सार्वभौम महावत आदि होते हैं। मुक्ति-लाभ के लिए नित्य कर्मों का सम्पादन आवश्यक माना गया है। मीमांसा में मात्मा को नित्य तथा अविनश्वर माना जाता है। वेद स्वर्ग-प्राप्ति के लिए धार्मिक आचरण पर बल देते हैं। इस संसार के साथ आत्मा के सम्बन्ध का विनाश ही मोक्ष है । मोक्ष की स्थिति में आत्मा शरीर से विच्छिन्न हो जाती है, अतः साधन के बिना उस समय उसे सुख अनुभव या ज्ञान नहीं होता। मीमांसा-दर्शन मानता है कि चैतन्य आत्मा का गुण नहीं है, बल्कि शरीर के सम्पर्क से ही उसमें चैतन्य आता है और सुख-दुःख का ज्ञान होता है। मोक्ष की दशा में भी आत्मा मानन्द का अनुभव नहीं करता। इसमें भौतिक जगत् की सत्ता मान्य है, पर जगत् स्रष्टा या ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया जाता । मीमांसा के अनुसार जगत् अनादि और अनन्त है, जिसकी न तो सृष्टि होती है और न विनाश होता है। यह कर्म को अधिक महत्व देता है जो स्वतन्त्र शक्ति के रूप में संसार को परिचालित करता है। मीमांसा वस्तुवादी या यथार्थवादी दर्शन है। यह जगत् को सत्य मानते हुए परमाणुओं से ही उसकी उत्पत्ति स्वीकार करता है। यह आत्मवाद को स्वीकार करता है तथा जीवों की अनेकता मानता है। कर्म के ऊपर विशेष मामह बोर कर्म की प्रधानता के कारण
२६ सं० सा०