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प्रियदर्शिका ]
( २९९ )
[ प्रियदर्शिका
शास्त्र की ऐतिहासिक श्रृंखला को जोड़ते हैं, द्वितीय इनमें वैदिक संहिताओं के पाठ एवं स्वरूप का वर्णन प्राप्त होता है । प्रातिशाख्यों से ही संस्कृत भाषा का व्याकरण प्रारम्भ होता है । ये स्वयं व्याकरण न होकर व्याकरण-संबंधी कतिपय विषयों का निरूपण करते हैं । प्रत्येक वेद के पृथक्-पृथक् प्रातिशाख्य प्राप्त होते हैं । 'ऋग्वेद' का प्रातिशाख्य है 'ऋक्प्रातिशाख्य', 'शुक्लयजुर्वेद' का 'वाजसनेयिप्रातिशाख्य' । तैत्तिरीयसंहिता' के प्रातिशाख्य का नाम 'तैत्तिरीय प्रातिशाख्य' है । सामवेदीय प्रातिशाख्यों की संख्या दो है - 'पुष्पसूत्र' एवं 'ऋक्तन्त्र' । 'अथर्ववेद' के भी दो प्रातिशाख्य हैं'शोन कीया चतुरध्यायिका' तथा 'अथर्ववेद प्रातिशाख्य' । [ उपर्युक्त सभी प्रातिशाख्यों के विवरण इस कोश में प्रस्तुत किये गए हैं । ]
प्रियदर्शिका - यह हर्षवर्धन रचित माटिका है [ दे० हर्षवर्धन ]। इसमें
चार अंक हैं तथा इसका नामकरण इसकी नायिका प्रियदर्शिका के नाम पर किया गया है । इसकी कथावस्तु गुणाढ्य की 'बृहत्कथा' से ली गयी है तथा रचनाशैली पर महाकवि कालिदास कृत 'मालविकाग्निमित्र' का प्रभाव है । इसमें कवि ने वत्सनरेश महाराज उदयन तथा महाराज दृढ़वर्मा की दुहिता प्रियदर्शिका को प्रणय कथा का वर्णन किया है । नाटिका के प्रारम्भ में कंचुकी विनयवसु दृढ़वर्मा का परिचय प्रस्तुत करता है । इसमें यह सूचना प्राप्त होती है कि दृढ़वर्मा ने अपनी राजकुमारी प्रियदर्शिका का विवाह कौशाम्बीनरेश वत्सराज के साथ करने का निश्चय किया था, पर कलिंगनरेश की ओर से कई बार प्रियदर्शिका की याचना की गयी थी । कलिंगनरेश दृढ़वर्मा के निश्चय से क्रुद्ध होकर उसके राज्य में विद्रोह कर देता है और दोनों पक्षों में उम्र संग्राम होने लगता है । कलिंगनरेश दृढ़वर्मा को बन्दी बना लेता है, किन्तु हृढ़वर्मा की पुत्री प्रियदर्शिका की रक्षा कर कंचुकी उसे वत्सराज उदयन के प्रासाद में पहुंचा देता है और वहाँ वह महारानी वासवदत्ता की दासी के रूप में रहने लगती है । उसका नाम आरण्यका रखा जाता है । द्वितीय अंक में वासवदत्ता के निमित्त पुष्पावचय करती हुई आरण्यका के साथ सहसा उदयन का साक्षात्कार होता है। तथा दोनों एक दूसरे के प्रति अनुरक्त हो जाते हैं। जब प्रियदर्शिका रानी के लिए कमल का फूल तोड़ रही है उसी समय भौंरों का झुण्ड आता है और उनके भय से वह बेचैन हो उठती है । तत्क्षण विदूषक के साथ भ्रमण करता हुआ राजा आता है और लताकुज में मंडराने वाले भ्रमरों को दूर कर देता है । यहीं से दोनों प्रथम प्रेम के बीज का वपन होता है । प्रियदर्शिका की सखी दोनों को एकाकी छोड़कर चली जाती है और वे स्वतन्त्रतापूर्वक वार्त्तालाप करने का अवसर प्राप्त करते हैं। तृतीय अंक में उदयन एवं प्रियदर्शिका की परस्पर अनुरागजन्य व्याकुलता का दृश्य उपस्थित किया गया है । लोक के मनोरंजन के लिए तथा वासवदत्ता के विवाह पर आधृत रूपक के अभिनय की व्यवस्था राजदरबार में की जाती है । नाटक में वत्सराज उदयन स्वयं अपनी भूमिका अदा करते हैं एवं आरण्यका वासवदत्ता का अभिनय करती है । यह नाटक केवल दर्शकों के मनोरंजन का साधन न बढ़ कर वास्तविक