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मृच्छकटिक ]
(४२१ )
[मृच्छकटिक
मागधी, शकारी, चाण्डाली तथा ढकी। टीकाकार ने विभिन्न पात्रों द्वारा प्रयुक्त प्राकृत का भी निर्देश किया है। १-शौरसेनी-सूत्रधार, नटी, वसन्तसेना, मदनिका, धूता, कर्णपूरक, रदनिका, शोधनक, श्रेष्ठी। २-अवन्तिका-वीरक, चन्दनक। ३-प्राच्याविदूषक । ४-मागधी-संवाहक, स्थावरक, कुम्भीलक, वर्धमानक, रोहसेन, भिक्षु । ५शकारी-शकार । ६-चाण्डाली-चाण्डाल । ७-ढक्की-सभिक (पूतकार), माधुर ।
वस्तुविधान-'मृच्छकटिक' का वस्तु-विधान संस्कृत नाव्य-साहित्य की महत्वपूर्ण उपलब्धि है। यह संस्कृत का प्रथम यथार्थवादी नाटक है जिसे देवी कल्पनाओं एवं आभिजात्य वातावरण से मुक्त कर कवि यथार्थ के कठोर धरातल पर अधिष्ठित करता है। शास्त्रीय दृष्टि से जहां यह एक ओर प्रकरण का रूप उपस्थित करता है, वहीं पाश्चात्य ढङ्ग की कौमदी की भौति भी मनोरंजकता से पूर्ण लगता है। प्रकरण में कविकल्पित कथावस्तु का विधान किया जाता है, और इसका नायक कोई इतिहास प्रसिद्ध व्यक्ति न होकर धीर प्रशान्त लक्षण से युक्त कोई ब्राह्मण, वणिक् अथवा अमात्य होता है। इसकी नायिका कुलजा अथवा वेश्या दोनों में से कोई एक या दोनों ही होती हैं। इसका कथानक मध्यम श्रेणी के व्यक्तियों से सम्बद्ध होता है, अतः उसमें मध्यम श्रेणी के व्यक्तियों की चारित्रिक दुर्बलताएं प्रदर्शित की जाती हैं। इसके पात्रों में कितव ( धूतं ), द्यूतकार, सभिक, विट, चेट आदि भी होते हैं। इस दृष्टि से 'मृच्छकटिक' प्रकरण सिद्ध होता है, नाटक नहीं । प्रकरण में दस अंक होते हैं, जो इस प्रकरण में भी हैं । पाश्चात्य कथा-विकास की दृष्टि से इसकी पांच अवस्थाएँ दिखाई पड़ती हैंप्रारम्भ, विकास, चरमसीमा, निगति एवं अन्त । प्रथम अंक में वसन्तसेना का चारुदत्त के घर अपने आभूषणों को रखने से कथा का प्रारम्भ होता है । इसके बाद कथानक का आगे विकास होता है। वसन्तसेना के आभूषणों का चुराया जाना तथा उसके बदले में धूता का रत्नमाला देना एवं वसन्तसेना का अभिसार विकासावस्था के सूचक हैं। शकट-परिवर्तन और वसन्तसेना की शकार द्वारा हत्या चरमसीमा के अन्तर्गत आएगी। अन्तिम अंक में चारुदत्त का प्राणदण्ड निगति और वसन्तसेना तथा चारुदत्त के विवाह की राजाज्ञा अन्त है। भारतीय कथा-विधान के विचार से 'मृच्छकटिक' में अर्थप्रकृतियों, कार्यावस्थाओं एवं सन्धियों का नियोजन अत्यधिक सफलतापूर्वक किया गया है। इसके प्रथम अंक में वसन्तसेना का पीछा करते हुए शकार के इस कथन में नाटक का 'बीज' प्रदर्शित हुआ है-'भाव ! भाव ! एषा गर्भदासी कामदेवायतनोद्यानात् प्रभृति तस्य दरिद्रचारुदत्तस्य अनुरक्ता, न मां कामयते' (पृष्ठ ५२, चौखम्बा संस्करण)। द्वितीय अंक में कर्णपूरक का वसन्तसेना को चारुदत्त का प्रावारक दिखाना एवं उसका ( वसन्तसेना ) प्रसन्न होना, बिन्दु है ।
तृतीय अंक में जुआड़ियों का प्रसंग मूलकथा का विच्छिन्न कर देता है और यह घटना प्रासंगिक कथा के रूप में प्रकट होती है। यहीं से शर्विलक का चरित्र प्रारम्भ होता है और मूलकथा के अन्त तक चलता है । अतः शविलक की कथा 'पताका' एवं परिव्राजक भिक्षु का प्रसङ्ग 'प्रकरी' है । अन्त में चारुदत्त द्वारा प्रसन्तसेना को पत्नी के रूप में स्वीकार करना 'कार्य' है। कार्यावस्था का विधान इस प्रकार है-प्रथम